पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३७४

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योगवाशिष्ठ।

शान्तरूप है। हे रामजी! हृदयाकाश में जो चैतन चक्र है अर्थात् जो ब्रह्माकार वृत्ति है उसकी ओर जब मन का तीन संवेग हो तब सब ही दुःखों का प्रभाव हो जावे। मन का मनन भाव उसी ब्रह्माकार वृत्तिरूपी चक्र से नष्ट होता है। हे रामजी! संसार के भोग जो मन से रमणीय भासते हैं वे जब रमणीय न भासें तब जानिये कि मन के अङ्ग कटे। जो कुछ अहं और त्वं आदि शब्दार्थ भासते हैं वे सब मनोमात्र हैं। जब दृढ़ विचार करके इनकी प्रभावना हो तब मन की वासना नष्ट हो। जैसे हंसिये से खेती कट जाती है तैसे ही वासना नष्ट होने से परमतत्त्व शुद्ध भासता है जैसे घटा के अभाव हुए शरदकाल का आकाश निर्मल भासता है तैसे ही वासना से रहित मन शुद्ध भासेगा। हे रामजी! मन ही जीव का परम शत्रु है और इच्छा संकल्प करके पुष्ट हो जाता है। जब इच्छा कोई न उपजे तब आप ही निवृत्त हो जावेगा। जैसे अग्नि में काष्ठ डालिये तो बढ़ जाती है और यदि न डालिये तो पाप ही नष्ट हो जाती है। हे रामजी! इस मन में जो संकल्प कल्पना उठती है उसका त्याग करो तब तुम्हारा मन स्वतः नष्ट होगा। जहाँ शस्त्र चखते हैं और अग्नि बगती है, वहाँ शूरमा निर्भय होके जा पड़ते हैं और शत्रु को मारते हैं, प्राण जाने का भय नहीं रखते तो तुमको संकल्प त्यागने में क्या भय होता है? हे रामजी! चित्त के फैलाने से अनर्थ होता है और चित्त के प्रस्फुरण होने से कल्याण होता है—यह वार्ता बालक भी जानता है। जैसे पिता बालक को अनुग्रह करके कहता है तैसे ही मैं भी तुमको समझता हूँ कि मनरूपी शत्रु ने भय दिया है और संकल्प कल्पना से जितनी आपदायें हैं वे मन से उपजती हैं। जैसे सूर्य की किरणों से मृगतृष्णा का जल दीखता है तैसे ही सब आपदा मन से दीखती हैं। जिसका मन स्थिर हुआ है उसको कोई क्षोभ नहीं होता। हे रामजी! प्रलयकाल का पवन चले, सप्त समुद्र मर्यादात्यागकर इकट्ठे होजावें और द्वादशसूर्य इकट्ठे होके तपें तो भी मन से रहित पुरुष को कोई विघ्न नहीं होता—वह सदा शान्तरूप है। हे रामजी! मनरूपी बीज है, उससे संसारवृक्ष उपजा है, सात लोक उसके पत्र हैं और शुभ-अशुभ सुख-दुःख उसके फल हैं।