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योगवाशिष्ठ।

और संशय के समुद्र में डूब गये और उन्होंने जाना कि राजा के मन में कोई बड़ी चिन्ता उपजी है और सबके सब प्रति आश्चर्यवान थे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे इन्द्रजालापाख्याने
नृपमोहो नामाशीतितमस्सर्गः॥८०॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी। दो मुहूर्त के उपरान्त राजा चेतन्य हुआ और उसका अङ्ग हिलकर सिंहासन से गिरने लगा, तब राजा के मन्त्री पौर अन्य नौकरों ने उसकी भुजा पकड़ के थाँमा परन्तु राजा की बुद्धि व्याकुल हो गई और बोले कि यह नगर किसका है, यह सभा किसकी हेभोरइसका कौन राजा है? जब इस प्रकार का वचन मन्त्रियों ने सुना तोशान्त हुए और प्रसन्न होकर कहने लगे, हे राजन्! आप क्यों व्याकुल इए हैं आपका मन तो निर्मल है और आप उदारात्मा हैं। जिन पुरुषों की प्रीति पदार्थों में होती है और आपात रमणीय भोगों में चित्त है उनका मन मोह से भर जाता और जो सन्त जन उदार हैं उनका चित्त निर्मल होता है। उनका मन मोह में कैसे पड़े? हे देव! जिनका चित्त भोगों की तृष्णा में बंधा है उनका मन मोह जाता और जो महापुरुष सन्त जन हैं उनका मन मोह में नहीं डूबता। जिनका चित्त पूर्ण भात्मतत्व में स्थित हुमा है और बड़े गुणों से सम्पन्न हैं उनको शरीर के रहने चौर नष्ट होने में कुछ मोह नहीं उपजता, और जिनको भात्मतत्त्व का अभ्यास नहीं पास हुभा है औरजो अविवेकी है उनका चित्त देश, काल,मंत्र पौर औषध के वश से मोह को प्राप्त होता है। भापका चित्त तो विवेक भाव को प्रहण करता है, क्योंकि भाप नित्य ही नूतन कथा भौर शब्द सुनते हो। भव भाप कैसे मोह से चलायमान हुए हो? जैसे वायु से पर्वत चलायमान हो वैसे ही भाप चलायमान हुए हैं-यह आश्चर्य है! माप अपनी उदारता स्मरण कीजिये। इतना सुनकर राजा सावधान हुमा और उसके मुख की कान्ति उज्ज्वल हुई-जैसे शरदकाल की सूखी हुई मञ्जरी वसन्त ऋतु में प्रफुल्लित होती है तैसे ही राजा नेत्रों को खोलकर देखने लगा और जैसे सूर्य राहु की भोर और सर्प नेवले की मोर देखता है तैसे ही इन्द्रजाली की भोर देखकर बोला, हे दुष्ट, इन्दनाली।