पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३६

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योगवाशिष्ठ।

शरीर जर्जर हो जाता है और मरता है। निदान एक क्षण भी मृत्यु इसको नहीं बिसारती। जैसे कामी पुरुष को सुन्दर स्त्री मिलती है तो उसके देखने का त्याग नहीं करता वैसे ही मृत्यु मनुष्य के देखे बिना नहीं रहती। हे मुनीश्वर! मूर्ख पुरुष का जीना दुःख के निमित्त है। जैसे वृद्ध मनुष्य का जीना दुःख का कारण है वैसे ही अज्ञानी का जीना दुःख का कारण है। उसके बहुत जीने से मरना श्रेष्ठ है। जिस पुरुष ने मनुष्यशरीर पाकर आत्मपद पाने का यत्न नहीं किया उसने अपना आप नाश किया और वह आत्महत्यारा है। हे मुनीश्वर! यह माया बहुत सुन्दर भासती है पर अन्त में नष्ट हो जाती है। जैसे काठ को भीतर से घुन खा जाता है और बाहर से बहुत सुन्दर दीखता है वैसे ही यह जीव बाहर से सुन्दर दृष्टि आता है और भीतर से उसको तृष्णा खा जाती है। जो मनुष्य पदार्थ को सत्य और मुखरूप जानकर सुख के निमित्त आश्रय करता है वह सुखी नहीं होता है। जैसे कोई नदी में सर्प को पकड़के पार उतरा चाहे तो पार नहीं उतर सकता, मूर्खता से डूबेगा, वैसे ही जो संसार के पदार्थों को सुखरूप जानकर आश्रय करता है सो सुख नहीं पाता, संसारसमुद्र में डूब जाता है हे मुनीश्वर! यह संसार इन्द्र धनुष की नाई है। जैसे इन्द्रधनुष बहुत रङ्ग का दृष्टि पाता है और उससे कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता वैसे ही यह संसार भ्रममात्र है, इसमें सुख की इच्छा रखनी व्यर्थ है। इस प्रकार जगत् को मैंने असवरूप जानकर निर्वासनिक होने की इच्छा की है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे संसारसुखनिषेध
वर्णननाम नवमस्सर्गः॥६॥

श्रीरामजी बोले, हे मुनीश्वर! महङ्कार अज्ञान से उदय हुआ है। यह महादुष्ट है और यही परम शत्रु है। इसने मुझको दवा डाला है पर मिथ्या है और सब दुःखों की खानि है। जब तक अहङ्कार है तब तक पीड़ा की उत्पत्ति का प्रभाव कदाचित नहीं होता। हे मुनीश्वर! जो कुछ मैंने अहङ्कार से भजन और पुण्य किया, जो कुछ लिया दिया भोर जो कुछ किया वह सब व्यर्थ है। इससे परमार्थ की कुछ सिद्धि नहीं है।