पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३४९

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उत्पत्ति प्रकरण।

है। हे रामजी! ज्ञानवान् अज्ञानी के उपदेश के निमित्त भेद कल्पते हैं; अपनी दृष्टि में उनको सर्व ब्रह्म ही भासता है। मन आदिक भी जो तुमको भासते हैं वे ब्रह्म से भित्र नहीं अनन्य और शक्तिरूप हैं। उससे अन्य कोई पदार्थ नहीं; सर्वशक्ति परब्रह्म नित्य और सर्व और से पूर्ण अविनाशी है और सबही ब्रह्मसत्ता में है सर्वशक्तिमान आत्मा है। जैसी उसको रुचि है वही शक्ति प्रत्यक्ष होती है और सर्व शक्तिरूप होकर फला है। जीवों में चैतनशक्त, ज्ञान वायु में स्पन्दता, पत्थर में जड़ता, जल में द्रवता, अग्नि में तेज, आकाश में शुन्यता, स्वर्ग में भाव, काल में नाम, शोक में शोक, मुदिता में आनन्द, वीरों में वीर, सर्ग के उपजाने में उत्पत्ति और कल्प के अन्त में नाशशक्ति आदि जो कुछ भाव अभाव शक्ति है सो सब ब्रह्म ही की है। जेसे फूल, फल, बेल, पत्र, शाखा, वृक्ष विस्तार बीज के अन्दर होता है तैसे ही सब जगत् ब्रह्म में स्थित होता है। और जीव, चित्त और मन आदिक भी ब्रह्म ही में स्थित हैं। हे रामजी। जैसे वसन्त ऋतु में एक ही रस नाना प्रकार के फूल, फल, टहनियों सहित बहुत रूपों को धरता है तैसे ही एक ही आकाश ब्रह्म चैत्यता से जगतरूप हो भासता है और उसमें देशकालादिक कोई विचित्रता, नहीं सम्पूर्ण जगत् वही रूप है। वह ब्रह्मात्मा सर्वत्र, नित्य उदित और बृहदूप है। हे रामचन्द्र! उसी की मनन कलना मन कहाती है। जैसे आकाश में आँख से तरुवरे और सूर्य की किरणों में जल भासता है तैसे ही आत्मा में मन है। हे रामजी! ब्रह्म में चित्त मन का रूप है और वह मन ब्रह्म की शक्तिरूप है; इसी कारण ब्रह्म से मित्र नहीं ब्रह्म ही है—ब्रह्म से भिन्न कल्पना करनी अज्ञानता है। ब्रह्म में मैं ऐसा उत्थान हुआ है इसका नाम मन है और जड़ अजहरूप मनसे जगत् हुमा है। प्रतियोगी और व्यवच्छेदक संख्यारूप सब मन के कल्पे हैं। प्रतियोगी और व्यवच्छेदक संख्या का भेद यह है कि प्रतियोगी विरोधी को कहते हैं; जैसे चेतन का प्रतियोगी जड़ और व्यवच्छेद इसे कहते हैं कि जैसे घट अविच्छिन्न पट। ऐसे अनेकरूप दृश्य सम मन के कल्पे हैं जैसे-जैसे ब्रह्म में इन्द्र ब्राह्मण के पुत्रों की नाई मन द्दढ़ होता है तैसे ही तैसे भासता