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योगवाशिष्ठ।

उस अटवी में जाने योग्य भी तुम नहीं। तुम बालक हो और वह आटवी महाभयानक है उसमें प्राप्त हुए कष्ट से कष्ट पाता है।

इति श्री योगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे चित्तोपाख्यानवर्णनन्नाम
चतुःसप्ततितमः॥७४॥

रामजी बोले, हे बाह्मण! वह कौन अटवी है; मैंने कब देखी है और कहाँ है और वे पुरुष अपने नाश के निमित्त क्या उद्यम करते थे सो कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वह अटवी दूर नहीं और वह पुरुष भी दूर नहीं। यह जो गम्भीर बड़ा आकाररूप संसार हे वही शून्य अटवी है और विकारों से पूर्ण है। यह अटवी भी आत्मा से सिद्ध होती है। उसमें जो पुरुष रहते हैं वे सब मन हैं और दुःखरूपी चेष्टा करते हैं विवेक ज्ञानरूपी मैं उनको पकड़ता था। जो मेरे निकट पाते थे वे तो जैसे सूर्य के प्रकाश से सूर्यमुखी कमल खिल पाते हैं तैसे मेरे प्रबोध से प्रफुल्लित होकर महामति होते थे और चित्त से उपशम होकर परमपद को प्राप्त होते थे और जो मेरे निकट न आये और अविवेक से मोहे हुए मेरा निरादर करते थे वे मोह और कष्ट ही में रहे। अब उनके अंग, प्रहार, कूप, कञ्ज और केले के वन का उपमान सुनो। हे रामजी! जो कुछ विषय अभिलाषाएँ हैं वे उस मन के अंग हैं। हाथों से प्रहार करना यह है कि सकाम कर्म करते हैं और उनसे फटे हुए दूर से दूर दौड़ते और मृतक होते हैं। अन्धकूप में गिरना यही विवेक का त्याग करना है। इस प्रकार वह पुरुष पापको आपही प्रहार करते भटकते फिरते हैं और अभिलापरूपी सहस्र अंगों से घिरे हुए मृतक होकर नरकरूपी कूप में पड़ते है जब उस कूप से बाहर निकलते हैं तब पुण्य कमों से स्वर्ग में जाते हैं। वही कदली के वन समान है वहाँ कुछ सुख पाते हैं। स्त्री, पुरुष, कलत्र आदिक कुटुम्ब कब्ज के वन हैं और कञ्ज में कण्टक होते हैं सो पुत्र, धन और लोकों की कामना हैं उनसे कष्ट पाते हैं। जब महापाप कर्म करते हैं तब नरकरूपी अन्धकूप में पड़ते हैं और जब पुण्यकर्म करते हैं तब कदली वन की नाई स्वर्ग को प्राप्त होते हैं तो कुछ उल्लास को भी प्राप्त होते हैं। हे रामजी! गृहस्थाश्रम महादुःखरूप कञ्ज वन की नाई है। ये