पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३४

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योगवाशिष्ठ।

गड्ढा है। हे मुनीश्वर! देखने में यह सुन्दर लगती है। यह दुख का कारण है। जैसे खड्ग की धार देखने में सुन्दर होती है और स्पर्श करने से नाश करती है वैसे ही यह लक्ष्मी विचाररूपी मेघ का नाश करने को वायु है। हे मुनीश्वर! यह मैंने विचार करके देखा है कि इसमें कुछ भी सुख नहीं। ् सन्तोषरूपी मेघ का नाश करनेवाली लक्ष्मी शरत्काल है। मनुष्य में गुण तब तक दृष्टि आते हैं जब तक लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं होती जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तब शुभ गुण नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वर! लक्ष्मी को ऐसी दुःखदायक जानकर इसकी इच्छा मैंने त्याग दी है। यह भोग मिथ्या है जैसे बिजली प्रकट होकर छिप जाती है वैसे ही लक्ष्मी भी प्रकट होकर छिप जाती है। जैसे ही जल शीतलता से हिम होता है वैसे ही लक्ष्मी मनुष्य को जड़ सा बना देती है। इसको छलरूप जान कर मैंने त्याग दिया है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे लक्ष्मीनैराश्य
वर्णनन्नामाष्टमस्सर्गः॥८॥

रामजी बोले, हे मुनीश्वर! जैसे कमलपत्र के ऊपर जल की बूँदें नहीं ठहरती वैसे ही लक्ष्मी भी क्षण भंगुर है। जैसे जल से तरंग होकर नष्ट होती है वैसे ही लक्ष्मी वृद्धि होकर नष्ट हो जाती है। हे मुनीश्वर! पवन को रोकना कठिन है पर उसे भी कोई रोकता है और आकाश का चूर्ण करना अति कठिन है उसे भी कोई चूर्ण कर डालता है और विजली का रोकना अति कठिन है सो उसे भी कोई रोकता है, परन्तु लक्ष्मी को कोई स्थिर नहीं रख सकता। जैसे शश की सींगों से कोई मार नहीं सकता और आरसी के ऊपर जैसे मोती नहीं ठहरता, जैसे तरङ्ग की गाँठ नहीं पड़ती वैसे ही लक्ष्मी भी स्थिर नहीं रहती। लक्ष्मी विजली की चमक सी है सो होती है और मिट भी जाती है। जो लक्ष्मी पाकर अमर होना चाहे उसे अति मूर्ख जानना और लक्ष्मी पाकर जो भोग की वाञ्छा करता है वह महा आपदा का पात्र है। उसका जीने से मरना श्रेष्ठ है। जीने की आशा मूर्ख करते हैं। जैसे स्त्री गर्भ की इच्छा अपने दुःख के निमित्त करती है वैसे ही जीने की आशा पुरुष