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योगवाशिष्ठ।

जो जगत् रचा है वही सर्ववित्त शक्ति फैली है और चित्त के फुरने ही से नानात्व भासता है। हे रामजी! जो कुछ जीव हैं उन सब में आत्मसत्ता स्थित है, परन्तु अपने स्वरूप के प्रमाद से भटकते हैं। जैसे वायु से वन के कुओं में सखे पात भटकते हैं तैसे ही कर्मरूपी वायु से जीव भटकते हैं और अधः और ऊर्ध्व में घटीयन्त्र की नाई अनेक जन्म घरते है। जब काकतालीवत् सत्सङ्ग प्राप्रि हो और अपना पुरुषार्थ करे तब मुक्त हो। इसकी जब तक प्राप्त नहीं होती तब तक कर्मरूपी रस्सी से बांधे हुए अनेक जन्म भटकते हैं और जब ज्ञान की प्राप्ति होगी तभी दृश्यभ्रम से छूटेंगे अन्यथा न छूटेंगे। हे रामजी! इस प्रकार ब्रह्मा से जीव उपजते और मिटते हैं। अनन्त सङ्कटों की कारण वासना ही है जो नाना प्रकार के भ्रम दिखाती है और जगतरूपी मन की जन्मरूपी वेताल बेल वासना जल से बढ़ती है जब सम्यक ज्ञान प्राप्त हो तब उसी कुठार से काटो। जब मन में वासना का क्षोभ मिटे तव शरीररूपी अंकुर मनरूपी बीज से न उपजे जैसे भुने बीज में अंकुर नहीं उपजता तेसे ही वासना से रहित मन शरीर को नहीं धारण करता।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे वासनात्यागवर्णनन्नामै
कोनसप्ततितमस्सर्गः॥६९॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जितनी भूतजाति हैं वह ब्रह्मा से उपजी हैं। जैसे समुद्र में जो तरङ्ग और बुदबुदे कोई बड़े, कोई छोटे और कोई मध्यभाव के होते हैं वे सब जल हैं तैसे ही यह जीव ब्रह्म से उपजे हैं और ब्रह्मरूप हैं। जैसे सूर्य की किरणों में जल भासता है अग्नि से चिनगारे उपजते हैं तैसे ही ब्रह्म से जीव उपजते हैं। जैसे कल्पवृक्ष की मञ्जरी नाना रूप धरती हे तैसे ही ब्रह्म से जीव हुए हैं। जैसे चन्द्रमा से किरणों का विस्तार होता है और वृक्ष से पत्र, फल और फूल आदिक होते हैं तैसे ही ब्रह्म से जीव होते हैं। जैसे सुवर्ण से अनेक भूषण होते हैं तैसे ही ब्रह्म से जगत् होते हैं। जैसे झरनों से जल के कण उपजते हैं तैसे ही परमात्मा से भूत उपजते हैं। जैसे आकाश एक ही है पर उससे घट-मठ की उपाधि से घटाकाश और मठाकाश कहाता है तैसे ही संवेदन के फुरने से जीव