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उत्पत्ति प्रकरण।

वह सब मन में फुरता हैं। मन के दो रूप हैं—एक जड़ और दूसरा चेतन। जहरूप मन का दृश्यरूप है और चैतनरूप ब्रह्मा है। जब दृश्य की और फुरता है तब दृश्यरूप होता है और जब चेतनभाव की ओर स्थित होता है तब जेसे सुवर्ण के जाने से भूषणभाव नष्ट हो जाता है तैसे ही दृश्यरूप जड़ भाव नष्ट हो जाता है। जब जड़ भाव में फुरता है तब नाना प्रकार के जगत् देखता है। वास्तव में ब्रह्मादिक तृणपर्यन्त सब ही चैतनरूप हैं। जड़ उसको कहना चाहिये जिसमें चित्त का प्रभाव हो। जैसे लकड़ी में चित्त नहीं भासता और प्राणधारियों में चित्त भासता है। परन्तु स्वरूप में दोनों तुल्य हैं, क्योंकि सर्व परमात्मा द्वारा प्रकाशते हैं। हे वशिष्ठजी। सब चेतनस्वरूप हैं, जो चेतनस्वरूप न हों तो क्यों भासें। चेतनता से उपलब्धरूप होते हैं। जड़ और चेतन का विभाग भवाच्य ब्रह्म में नहीं पाया जाता, प्रमाद दोष से है वास्तव में नहीं। जैसे स्वम में जो दो प्रकार के जड़ और चेतन भूत भासते हैं उनका प्रमाद होता है तब उस चेतन भृत प्राणी को जड़ चेतन विभाग भासता है और स्वरूपदर्शी को सब एक स्वरूप है। हे मुनीश्वर! ब्रह्मा में जो चैत्यता हुई वही मन हुआ उस मन में जो चेतनभाग है वही ब्रह्मा है और जड़भाग अबोध है। जब अबोधभाव होता है तब दृश्यभ्रम देखता है और जब चेतनभाव में स्थित हो जाता है तब शुद्ध रूप होता है। हे मुनीश्वर! चेतनमात्र में अहंकार का उत्थान दृश्य है और परमार्थ में कुछ भेद नहीं। जैसे तरङ्ग जल से भिन्न नहीं तैसे ही अहं चेतनमात्र से भिन्न नहीं होता। सबकी प्रतीति ब्रह्म ही में होती है, वह परमपद है और सब दुःखों से रहित है। वही शुद्ध चित्त जीव जब चैत्यभाव को चेतता है तब जड़भाव को देखता है। जैसे स्वप्न में कोई अपना मरना देखता है तैसे ही वह चित्त जड़भाव को देखता है। आत्मा सर्वशक्तिमान है; कर्ता है तो भी कुछ नहीं करता और उसके समान और कोई नहीं। हे मुनीश्वर! यह जगत् कुछ वास्तव में उपजा नहीं, चित्त के फरने से भासता है। जब चित्त की स्फूर्ति होती है तब जगज्जाख भासता है और जब चैतन आत्मा में स्थित होता है तब मन