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योगवाशिष्ठ।

निश्चय नहीं नष्ट होता। जब मन का निश्चय ही उलट पड़े तर ही दूर होता है। एक शरीर जब नष्ट होता है तब जीव और शरीर पर लेता है जैसे स्वप्न में यह शरीर रहता है और अन्य शरीर धरके चेष्टा करता है तो शरीर के ही अधीन हुआ; तैसे ही शरीर के नष्ट हुए मन का निश्चय दूर नहीं होता। जब मन नष्ट होता है तब शरीर के होते भी कुछ क्रिया सिद्ध नहीं होती। इससे सबका बीज मन ही है। जैसे पत्र, टहनी, फल और फूल का कारण जल है; तैसे ही सब पदार्थों का कारण मन है। जैसा चित्त है तैसा रूप पुरुष का है। इससे जहाँ मेरा चित्त जाता है वहाँ सब और से रानी ही भासती है। मुझको दुःख कैसे हो?

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे कृत्रिमइन्द्रवाक्यन्नाम
पञ्चषष्टितमस्सर्गः॥६५॥

भानु बोले, हे भगवन्! इस प्रकार जब इन्द्र ब्राह्मण ने कहा तब कमलनयन राजा ने भरत नाम ऋषीश्वर से जो समीप बैठे थे कहा, हे सर्वधों के वेत्ता भरत मुनीश्वर! तुम देखो कि यह कैसा ढीठ पापात्मा है। जैसा इनका पाप है उसके अनुसार इनको शाप दो कि यह मर जावें। जो मारने योग्य न हो और उसको राजा मारे तो उसको पाप होता है; तैसे ही पापी के न मारने से भी पाप होता है। इससे इन पापियों को शाप दो कि यह नष्ट हो जावें। भरत मुनि ने उनका पाप विचारके कहा, अरे पापियों! तुम मर जावो तब उस इन्द्र ब्राह्मण ने कहा, रे दुष्टो! तुमने जोशाप दिया उससे हमारा क्या होगा? केवल हमारा शरीर नष्ट होगा मन तो नष्ट होने का नहीं। तुम चाहे लाख यत्न करो उस मन से हम और शरीर धारण करेंगे-हमारे मन के नष्ट हुए विना विपर्यय दशा न होगी। ऐसा कहकर दोनों पृथ्वी पर इस भाँति गिर पड़े जैसे मूल के काटे वृक्ष गिर पड़ता है और वासना संयोग से दोनों मृग हुए। वहाँ भी परस्पर स्नेह में रहे और फिर उस जन्म को भी त्यागकर पक्षी हुए। कुछ दिन के पश्चात् उन्होंने उस देह को भी त्याग किया और अब हमारी सृष्टि में तपकर्ता पुण्यवान ब्राह्मण और ब्राह्मणी हुए हैं। इससे तुम देखो कि भरत मुनि ने शाप