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योगवारिष्ठ।

हो सो हमसे कहो। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! जैसे मेघ को देखकर मोर प्रसन्न होता है वैसे ही विश्वामित्र के वचन सुनकर रामजी प्रसन्न हुए और अपने हृदय में निश्चय किया कि अब मुझको अभीष्ट पद की प्राप्ति होगी।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यपकरणे रामसमाजवर्णनोनाम षष्ठस्सर्गः॥६॥

श्रीरामजी बोले, हे भगवन्! जो वृत्तान्त है सो तुम्हारे सम्मुख क्रम से कहता हूँ। मैं राजा दशरथ के घर में उत्पन्न होकर क्रम से बड़ा हुआ और चारों वेद पढ़कर ब्रह्मचर्यादि व्रत धारण किये; तदनन्तर घर में आया तो मेरे हृदय में विचार हुआ कि तीर्थाटन करूँ और देवदारों में जाकर देवों के दर्शन करूँ। निदान में पिता की आज्ञा लेकर तीर्थों में गया और गङ्गा आदि सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान और शालग्राम और केदार आदि ठाकुरों के विधिसंयुक्त दर्शन करके यहाँ आया। फिर उत्साह हुआ तब यह विचार पाया कि प्रातःकाल उठकर स्नान सन्ध्यादिक कर्म करके भोजन करता। जब इस प्रकार से कुछ दिन व्यतीत हुए तब मेरे हृदय में एक विचार उत्पन्न हुआ जो मेरे हृदय को बैंच ले गया। जैसे नदी के तट पर तृण वेल होती है उसको नदी का प्रवाह खींच ले जाता है वैसे ही मेरे हृदय में जो कुछ जगत् की आस्थारूपी बेल थी उसको विचाररूपी प्रवाह खींच लेगया। तब मैंने जाना कि राज्य करने से क्या है, भोग से क्या है और जगत् क्या है—सब भ्रममात्र है—इसकी वासना मूर्ख रखते हैं; यह स्थावर, जङ्गम जगत् सब मिथ्या है। हे मुनीश्वर! जितने कुछ पदार्थ हैं वह सब मन से उत्पन्न होते हैं सो मन ही भ्रमपात्र है अनहोता मन दुःखदायी हुआ है। मन जो पदाथों को सत्य जानकर दौड़ता है और सुखदायक जानता हैं सो मृगतृष्णा के जलवत् है। जैसे मृगतृष्णा के जल को देखकर मृगदौड़ते हैं और दौड़ते-दौड़ते थककर गिर पड़ते हैं तो भी उनको जल प्राप्त नहीं होता वैसे ही मूर्ख जीव पदार्थों को सुखदायी जानकर भोगने का यत्न करते हैं और शान्ति नहीं पाते। हे मुनीश्वर! इन्द्रियों के भाग सर्पवत् हैं जिनका मारा हुआ जन्म मरण और जन्म से जन्मान्तर पाता है। भोग और जगत् सब भ्रममात्र