पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२९८

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योगवाशिष्ठ।

होता। जिसके आश्रय असत् भी सिद्ध होता है सो सत् है। वह चिद्अणु पञ्चकोशों में नहीं छिपता। जैसे कपूर की गन्ध नहीं छिपती तैसे ही पञ्चकोश में आत्मा नहीं बिपती। अनुभवरूप है। वही चिन्मात्र सर्वरूप से किञ्चित् है और अचेतन चिन्मात्र है, इससे अकिञ्चित् इन्द्रियों से रहित और निर्मल है। उस ही चिद्अणु में फुरने से अनेक जगत् स्थित हैं। जैसे समुद्र में फरने से तरङ्ग उपजते हैं और फिर लीन होते हैं तैसे ही चिद्अणु में फुरने से अनेक जगत् उपज के लीन होते हैं वह मन और इन्द्रियों से प्रतीत है इससे शून्य कहाता है और अपने आपही प्रकाशता है इससे अशून्य है। हे राक्षसी! मेरा और तेरा अहं एक ही आत्मा है। अहं की अपेक्षा से त्वं है ओ त्वं की अपेक्षा से मैं परिच्छिन्न हूँ, परन्तु दोनों का उत्थान एक आत्मतत्त्व से ही है। उसही चिद्अणु के बोध से ब्रह्मरूप होता है और उसही बोध में अहं त्वं सब लीन होते हैं, अथवा सर्व भापही होता है। त्रिपुटिरूप भी वही है। वही चिद्अणु अनेक योजनों पर्यन्त जाता है कदाचित् चलायमान नहीं होता, क्योंकि संवित् अनन्तरूप है। योजनों के समूह उसके भीतर हैं वास्तव में न कोई आता है और न जाता है, अपने प्राकाशकोश में सब देश काल स्थित है। जिसमें सब कुछ हो उसकी प्राप्ति वास्तव में क्या हो? यह जितना जगत् है वह तो आत्मा में है फिर मात्मा कहाँ जावे? जैसे माता की गोद में पुत्र हो तो फिर वह उस निमित्त कहाँ जावे तैसे ही आत्मा में यह जगत् स्थित है फिर आत्मा कहाँ जाय; देह की अपेक्षा से चलता है भासता है वह कदाचित् चला नहीं। जैसे आकाश में घटादिक स्थित हैं तैसे ही चिद्अणु में देशकाल स्थित है। जैसे घट एकदेश से देशान्तर को जावे तो घट जाता है आकाश नहीं जाता, पर घट की अपेक्षा से आकाश जाता भासता है। वास्तव में घटाकाश कहीं नहीं गया, क्योंकि आकाश में सब देश स्थित हैं यह कहाँ जावे तैसे ही आत्मा भी जाता है और नहीं जाता। उसही चिन्मात्र परमात्मा में संवेदन प्राकार रचे हैं और आदि अन्त से रहित विचित्ररूपी जगत् रचा है। वही चिद्अणु अग्नि की नाई प्रकाशरूप है और