पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२८८

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योगवाशिष्ठ।

की नाई मेरी जीभ कहाँ गई? जैसे कोई अभागी पुरुष चिन्तामणि को त्याग दे और काँच अङ्गीकार करे तैसे ही मैंने बड़े शरीर को त्याग के तुच्छ शरीर को अङ्गीकार किया जो एक बूंद से ही तृप्त हो जाता है परन्तु तृष्णापूरी नहीं होती। उस शरीर से मैं निर्भय विचरती थी, यहशरीर पृथ्वी के कण से भी दब जाता है। भव तो मैं बड़े कष्ट पाती हूँ यदि मैं मृतक हो जाऊँ तो छूटूं, परन्तु माँगी हुई मृत्यु भी हाथ नहीं पाती इससे मैं फिर शरीर के निमित्त तप करूं। वह कौन पदार्थ है जो उद्यम करने से हाथ न भावे। हे रामजी! ऐसे विचारकर वह फिर हिमालय पर्वत के निर्जनस्थान वन में जा एक टाँग से खड़ी हुई और ऊर्ध्वमुख करके तप करने लगी। हे रामजी! जब पवन चले तो उसके मुख में फल, मांस और जल के कणके पड़ें परन्तु वह न खाय बल्कि मुख मूंद ले। पवन यह दशा देख के आश्चर्यवान हुआ कि मैंने सुमेरु आदि को भी चलायमान किया है परन्तु इसका निश्चय चलायमान नहीं होता। निदान मेघ की वर्षा से वह कीचड़ में दब गई परन्तु ज्यों की त्यों ही रही और मेघ के बड़े शब्द से भी चलायमान न हुई। हे रामजी! इस प्रकार सहस्र वर्ष उसको तप करते बीते तव दृढ़ वैराग्य से उसका चित्त निर्मल हुआ भोर सव सङ्कल्पों के त्याग से उसको परमपद की प्राप्ति हुई; बड़े ज्ञान का प्रकाश उदय हुआ और परब्रह्म का उसको साक्षात्कार हुआ उससे परमपावनरूप होकर चित्तसूची हुई अर्थात् चेतन में एकत्वभाव हुआ। जब उसके तप से सातों लोक तपायमान हुए तब इन्द्र ने नारद से प्रश्न किया कि ऐसा तप किसने किया है जिससे लोक जलने लगे हैं? तब नारदजी ने कहा, हे इन्द्र! कर्कटी नाम राक्षसी ने सात हजार वर्ष बड़ा कठिन तप किया। जिससे वह विसूचिका हुई। वह शरीर पा उसने बहुत कष्ट पाया और लोगों को भी कष्ट दिया। जैसे विराट् आत्मा मोर चित्तशक्ति सबमें प्रवेश कर जाती है तैसे ही वह भी सबकी देह में प्रवेश कर जाती थी। जो मन्त्र जाप न करें उनके भीतर प्रवेश करके रक्त मांस भोजन करे परन्तु तृप्त न हो मन में तृष्णा रहे और सूक्ष्म शरीर धूल में दब जावे। इस प्रकार उसने बहुत कष्ट पा के