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उत्पति प्रकरण।

से रहित हैं सो पीले कष्ट पाते हैं और अनर्थ करके औरों को कष्ट देते हैं। वे एक पदार्थ को केवल भला जानके उसके निमित्त यत्र करते हैं न धर्म की भोर देखते हैं और न सुख की ओर देखते हैं। इस प्रकार मूर्ख राक्षसी ने भोजन के निमित्त बड़े गम्भीर शरीर को त्याग कर तुच्छ शरीर को अंगीकार किया। उसका एक शरीर तो सूक्ष्म हुआ और दूसरा पुर्यष्टक हुआ। कहीं तो सूक्ष्म शरीर से, जिसको इन्द्रियाँ भी न प्रहण कर सकें, प्रवेश करे और कहीं पुर्यष्टक से जा प्रवेश करे। कहीं प्राणवायु के साथ प्रवेश करके दुःख दे और कहीं प्राणों को विपर्यय करे तव पाणी कष्ट पार्नु और कहीं रक्त आदिक रसों का पानकर एक बूंद से उदर पूर्ण हो जावे परन्तु तृष्णा निवृत्त न हो। जब शरीर से बाहर निकले तब भी कष्ट पावे और वायु चले उससे गढ़े और कीचड़ में गिरे और चरणों के तले आवे। निदान कभी देशों में रहे और कभी घास और तृणों में रहे जो नीच पापी जीव हैं उनको कष्ट दे और जो गुणवान हों उनको कष्ट न दे सके। मन्त्र पढ़ने से निवृत्त हो जावे। जो आप किसी छिद्र में भी गिरे तो जाने कि मैं बड़े कूप में गिरी।हे रामजी! मूर्खता से उसने इतने कष्ट पाये। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार जब वशिष्ठजी ने कहा तब सूर्य अस्त होकर सायंकाल का समय हुआ तब सब सभा परस्पर नमस्कार करके स्नान को गई और विचारसंयुक्त रात्रि व्यतीत करके सूर्य की किरणों के निकलते ही फिर आ उपस्थित हुई।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे विसूचिकाव्यवहार
वर्णनन्नामैकपञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५१॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार प्राणियों को मारते उसे कुछ वर्ष बीते तब उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि बड़ा कष्ट है! बड़ा कष्ट!! यह विसूचिका शरीर मुझको कैसे प्राप्त हुआ है!!! मैंने मूर्खता से यह वर ब्रह्माजी से माँगा था। मूर्खता बड़े दुःख को प्राप्त करती है। कैसा मेघ की नाई मेरा शरीर था कि सूर्यादिक को टॉक खेती थी। हाय, मन्दराचल पर्वत की नाई मेरा उदर भोर बड़वाग्नि