पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२८४

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योगवाशिष्ठ।

तैसे ही असत्यरूप सृष्टि सत्य भासने लगी। हे रामजी! ब्रह्मसत्ता में जैसे ब्रह्मा आदिक उपजे हैं वैसे ही और जीव, कीट आदि भी उत्पन्न हुए। जगत् का कारण संवेदन है। संवेदन भ्रम से जीवों को जगत् भासता है। उनको भौतिक शरीर में जो अहं प्रतीति हुई है उससे अपने निश्चय के अनुसार शक्ति हुई। ब्रह्मा में ब्रह्मा की शक्ति का निश्चय हुआ और चींटी में चींटी की शक्ति का निश्चय हुआ। हे रामजी जैसी जैसी वासना संवित् में होती है उसके अनुसार ही अनुभव होता है। शुद्ध चिन्मात्र में जो चैत्योन्मुखत्व हुआ उसी का नाम जीव हुआ। उसमें जो ज्ञानरूप सत्ता है सोई पुरुष है और जो फुरना है सोई कर्म है। जैसे जैसे फुरता है तैसे ही तैसे भासता है। हे रामजी! आत्मसत्ता में जो अहं हुआ है उसी का नाम चित्त है उससे जो जगत् रचा है वह भी अविचारसिद्ध है; विचार करने से नष्ट हो जाता है। जैसे विचार से अपनी परवाही में भूत पिशाच कल्पता है और उससे भय उत्पन्न होता है पर विचार करने से पिशाच और भय दोनों नष्ट हो जाते हैं; तैसे ही हे रामजी! आत्मविचार से चित्त और जगत् दोनों नष्ट हो जाते हैं। हे रामजी! ब्रह्मसत्ता सदा अपने आपमें स्थित है; उसमें चित्त कल्पना कोई नहीं और प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय भी ब्रह्म से भिन्न नहीं तो दैत की कल्पना कैसे हो? जैसे शशे के शृङ्ग असत हैं; तैसे आत्मा में दैतकल्पना असत्य है। हे रामजी! यह ब्रह्माण्ड भावनामात्र है। जिसको सत्य भासता है उसको बन्धन का कारण है। जैसे घुरान अर्थात् कुशवारी अपना गृह अपने बन्धन का कारण बनाती है और उसमें फँस मरती है; तैसे ही जो जगत् को सत्य मानते हैं उनको अपना मानना ही बन्धन करता है और उससे जन्म मरण देखते हैं। जिसको जगत का असत्य निश्चय हुआ है उसको बन्धन नहीं होता-उसको उल्लास है। हे रामजी! अनुभवसत्ता सबका अपना आप है। उसमें जो जैसा निश्चय किया उसको अपने अनुभव के अनुसार पदार्थ भासते हैं। वास्तव में तो जगत् उपजा ही नहीं। जगत् का उपजना भी मिथ्या है; बढ़ना भी मिथ्या है; रस भी मिथ्या है और रस लेनेवाला भी मिथ्या है। शुद्धब्रह्म सर्वगत, नित्य और अद्वैत सदा