पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२८२

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योगवाशिष्ठ।

परिणाम हो तब उसका नाम तुर्यातीत पद है। उसमें स्थित हुआ फिर शोकवान् कदाचित् नहीं होता। उसी ब्रह्मसत्ता से सब उदय होते हैं और उस ही में सब लीन होते हैं और वास्तव में न कोई उपजा है और न कोई लीन होता है; चित्त के फुरने से ही सब भ्रम भासता है। जैसे नेत्रदूषण से आकाश में मुक्तमाला भासती हैं तैसे ही चित्त के फुरने से यह जगत् भासता है। हे रामजी! जैसे वृक्ष के बढ़ने को आकाश ठौर देता है कि जितनी बीज की सत्ता हो उतना ही आकाश में बढ़ता जावे तैसे ही सबको आत्मा ठौर देता है। अकर्त्तारूप भी संवेदन से भासता है। हे रामजी! जैसे निर्मल किया हुआ लोहा पारसी की नाई प्रतिविम्ब ग्रहण करता है तैसे ही आत्मा में संवेदन से जगत् का प्रतिविम्ब होता है; पर वास्तव में जगत् भी कुछ दूसरी वस्तु नहीं है। जैसे एक ही वीज, पत्र, फूल, फल और टास हो भासता है तेसे ही आत्मा संवेदन से नानारूप जगत् हो भासता है। जैसे पत्र और फूल वृक्ष से भिन्न नहीं होते तैसे ही अबोधरूप जगत् भी बोधरूप आत्मा से भिन्न नहीं। जो ज्ञानवान है उसको अखण्डसत्ता ही भासती है। जैसे समुद्र ही तरङ्ग और बुद्बुदे होकर और बीज ही पत्र, फूल, फल और टास होकर भासते हैं, तैसे ही भवानी को भिन्न-भिन्न नामरूपसत्ता भासती है। मूर्ख जो देखता है तो उनके नामरूप सत् मानता है और ज्ञानवान देखके एक रूप ही जानता है। ज्ञानवान को एक ब्रह्मसत्ता ही अनन्त भासती है और जगत्भ्रम उनको कोई नहीं भासता है। इतना सुन रामजी ने कहा; बड़ा आश्चर्य है कि असत्रूपी जगत् सत् होकर बड़े विस्तार से स्पष्ट भासता है। यह जगत् ब्रह्म का आभास है; अनेक तन्मात्रा उसके जल और बूंदों की नाई हैं और अविद्या करके फुरती हैं। ऐसा भी मैंने सुना है। हे मुनीश्वर! यह स्फूर्ति बहिर्मुख कैसे होती है और अन्तर्मुख कैसे होती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार का दृश्य का अत्यन्त प्रभाव है। अनहोते दृश्य के फुरने से अनुभव होता है। शुद्ध चिन्मात्र ब्रह्मसत्ता में फुरने से जो जीवत्व हुआ है वह जीवत्व असत् है और सत् की नाई होता है। जीव ब्रह्म से भिन्न है पर फुरने से भिन्न की नाईं स्थित होता है। उस जीव में