पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२८१

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उत्पत्ति प्रकरण।

से ही अज और अविनाशी पुरुष को नाना प्रकार के देह प्राप्त होते हैं और जानता है कि मैं अब उपजा, अब जीता हूँ फिर मर जाऊँगा। जैसे नौका में बैठे भ्रम से तट के वृक्ष भ्रमते दीखते हैं तैसे ही भ्रम से अपने में जन्मादि अवस्था भासती हैं। आत्मा के अज्ञान से जीव को 'अहं' आदि कल्पना फुरती हैं। जैसे मथुरा के राजा लवण को स्वप्न में चाण्डाल का भ्रम हुआ था तैसे ही चित्त के फुरने से जीव जगत् भ्रम देखते हैं। हे रामजी! यह सब जगत् मन के भ्रम से भासता है। शिव जो परम तत्त्व है सो चिन्मात्र है, उसमें जब चैत्योन्मुखत्व होता है कि 'मैं हूँ उसका ही नाम जीव है। जैसे सोमजल में द्रवता होती है, इससे उसमें चक्र फुरते हैं और तरङ्ग होते हैं; तैसे ही ब्रह्मरूपी सोमजल में जीवरूपी चक्र फुरते हैं और चित्तरूपी तरङ्ग उदय होते हैं और सृष्टिरूपी बुबुदे उपजकर लीन हो जाते हैं। हे रामजी! चेतन र्स्फूति द्वारा जीव की नाई भासता है। जैसे समुद्र ही द्रवता से तरङ्गरूप हो भासता है,तेसे ही चित्त चैत्य के संयोग से जीव कहाता है। उस जीव में जब संकल्प का फुरना होता है तब मन कहाता है; जब संकल्प निश्चय रूप होता है तब बुद्धि होकर स्थित होता है और जब अहंभाव होता है तब अहं प्रतिकार कहाता है। उस अहंभाव को पाकर तन्मात्रा की कल्पना होती है और पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये सूक्ष्म भूत होते हैं। उनके पीछे जगत् होता है। हे रामजी! असनरूपी चित्त के संसरने से ही जगरूप हो भासता है। जैसे नेत्रदूषण से आकाश में मुक्तमाला; भ्रममात्र गन्धर्वनगर और स्वप्नभ्रम से स्वप्नजगत् भासते हैं तैसे ही चित्त के संसरने से जगभ्रम भासता है। हे रामजी! शुद्ध आत्मा नित्य, तृप्त, शान्तरूप, सम और अपने आप ही में स्थित है। उसमें चित्तसंवेदन ने जगत रवा है और उसको भ्रम से सत्य की नाई देखता है। जैसे स्वप्न सृष्टि को मनुष्य भ्रम से देखता है; तैसे ही यह जगत् फुरने से सत्य भासता है। हे रामजी! मन के संसरने का नाम जाग्रत् है; अहंकार का नाम स्वप्न है; चित्त जो सजातीयरूप चेतनेवाला है उसका नाम सुषुप्ति है और चिन्मात्र का नाम तुरीयपद है। जब शुद्ध चिन्मात्र में अत्यन्त