पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२६४

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योगवाशिष्ठ।

तैसा ही हो भासता है। हे रामजी! नौका में बैठे हुए पुरुष को नदी के तट वृक्षों सहित दौड़ते भासते हैं। जो विचारवान् हैं वे चलते भासने में उन्हें स्थिर ही जानते हैं। और जो पुरुष थमता है उसको स्थिर भूत मन्दिर भ्रमते भासते हैं और जो विचार में दृढ़ है उसको भ्रमते भासने में भी अचल बुद्धि होती है। इससे जैसा जैसा निश्चय होता है तैसा ही तैसा हो भासता है। हे रामजी! जिसके नेत्र में दूषण होता है उसको श्वेत पदार्थ भी पीतवर्ण भासता है और जिसके शरीर में वात, पित्त, कफ का क्षोभ होता है उसको सव पदार्थ विपर्यय भासते हैं। इसी प्रकार पृथ्वी आकाश रूप भासती है और आकाश पृथ्वीरूप हो भासती है; चल पदार्थ अचल रूप भासता है और अचल पदार्थ चलता भासता है। हे रामजी! जैसे स्वप्न में अङ्गना असत् रूप होती है, परन्तु भ्रान्ति से उसको स्पर्श करके प्रसन्न होता है तो उस काल में प्रत्यक्ष ही भासती है और जैसे बालक को परवाही में वैताल भासता है सो असत् ही सवरूप हो भासता है। हे रामजी! शत्रु में जो मित्र भावना होती है तो वह शत्रु भी मित्र सुहृद् हो भासता है और जो मित्र में शत्रुभाव होता है तो वह सुहृद् शत्रुरूप हो भासता है। जैसे रस्सी में सर्प है नहीं, परन्तु भ्रम से सर्प भासता है और भय देता है तैसे ही बान्धवों में जो बान्धव की भावना न करे तो बान्धव भी अबान्धव हो भासता है और अबान्धव भी भावना के अभाव से बान्धव हो जाते हैं। हे रामजी! शून्य स्थान में और स्वप्न में बड़े क्षोभ भासते हैं और निकटवर्ती को जाग से कुछ नहीं भासता। स्वभवाले को सुनने का अनुभव होता है और जाग्रत वाले को जाग्रत् का अनुभव होता है, इत्यादिक पदार्थ विपर्यय भ्रम से भासते हैं। जब मन फुरता है तवही भासता है तैसे ही लीला के भर्ता को भी ऐसी सृष्टि का अनुभव हुआ। जैसे जाग्रत् के एक मुहूर्त का स्वप में बहुत काल का अनुभव होता है तैसे ही लीला के भर्ता को भी हुआ था। जैसी जैसी मन की स्फूर्ति होती है तैसा ही तैसा रूप चैतन्य संवित् में भासता है। हमको सदा ब्रह्मा का निश्चय है इससे हमको सब जगत् ब्रह्मस्वरूप ही भासता है और जिसको जगत् भ्रम दृढ़ है उसको जगत् ही भासता है।