पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२६

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योगवाशिष्ठ।

काल आकर स्थित होतो भी विश्वामित्र के होते तुम्हारे पुत्र को कुछ भय न होगा। तुम शोक मत करो और अपने पुत्र को इनके साथ कर दो। जो तुम अपना पुत्र न दोगे तो तुम्हारा दो प्रकार का धर्म नष्ट होगा एक धर्म यह कि कूप, बावली और ताल जो बनवाये हैं उनका पुण्य नष्ट हो जावेगा, दूसरे यह कि तप, व्रत, यज्ञ, दान, स्नानादिक क्रिया का फल भी नष्ट होकर तुम्हारा गृह अर्थहीन हो जावेगा। इससे मोह और शोक को छोड़ भोर धर्म को स्मरण करके रामजी को इनके साथ कर दो तो तुम्हारे सब कार्य सफल होंगे। हे राजन्! इस प्रकार जो तुम्हें करना था तो प्रथम ही विचारकर कहते क्योंकि विचार किये बिना काम करने का परिणाम दुःख होता है। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले, हे भारदाज! जब इस प्रकार वशिष्ठजी ने कहा तो राजा दशरथ धैर्यवान् हुए और भृत्यों में जो श्रेष्ठ भृत्य था उसको बुलाकर कहा, हे महाबाहो! रामजी को ले आवो। उनके साथ जो चाकर वह हार माने जानेवाला और छल से रहित था राजा की मात्रा लेकर रामजी के निकट गया और एक मुहूर्त पीछे आकर कहने लगा हे देव! रामजी तो बड़ी चिन्ता में बैठे हैं। जब मैंने रामजी से वारंवार कहा कि चलिये तब वे कहने लगे कि चलते हैं। ऐसे ही कह कह चुप हो रहते हैं। दूत का यह वचन सुन राजा ने कहा कि रामजी के मन्त्री और सब नौकरों को बुलावो और जब वे सब निकट आये तो राजा ने भादर और युक्तिपूर्वक कोमल और सुन्दर वचन मन्त्री से इस भाँति कहा कि हे रामजी के प्यारे! रामजी की क्या दशा है और ऐसी दशा क्योंकर हुई है सो सब क्रम से कहो? मन्त्री बोला, हे देव! हम क्या कहें? हम प्रति चिन्ता से केवल आकार और प्राणसहित दीखते हैं किन्तु मृतक के समान हैं क्योंकि हमारे स्वामी रामजी बड़ी चिन्ता में हैं। हे राजन्! जिस दिन से रघुनाथजी तीर्थ करके पाये हैं उस दिन से चिन्ता को प्राप्त हुए हैं। जब हम उत्तम भोजन और पान करने और पहिरने और देखने के पदार्थले जाते हैं तो उनको देखकर वे किसी प्रकार प्रसन्न नहीं होते। वे तो ऐसी चिन्ता में लीन हैं कि देखते भी नहीं और जो देखते हैं तो क्रोध करके सुख