पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२५४

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योगवाशिष्ठ।

रहती और निमित्तकारण और समवायकारण का अभाव होता है। चिदात्मा में जगत् कुछ उपजा नहीं और है भी नहीं; वास्तव में दृश्य का अत्यन्त प्रभाव है और जो कुछ भासता है वह ब्रह्म का किञ्चन है। वह ब्रह्मसत्ता सदा अपने आपमें स्थिर है। ऐसे ही अनेक युक्तियों से मैं तुमसे कहूँगा अब तुम पूर्व कथा सुनो। हे रामजी! जब वे दोनों देवियों उस मन्दिर में पहुचीं तो क्या देखा कि फूलों से सुन्दर शीतल स्थान बने हुए हैं—जैसे वसन्तऋतु में वन भूमिका होती है—और प्रातःकाल का समय है; सुवर्ण के मङ्गलरूपी कुम्भ जल से भरे रक्खे हैं; दीपकों की प्रभा मिट गई है; किवाड़ चढ़े हुए हैं, मन्दिरों में सोये हुए मनुष्यों के श्वास आते जाते हैं और महासुन्दर झरोखे हैं। ऐसे बने हुए स्थान शोभा देते हैं जैसे सम्पूर्ण कला से चन्द्रमा शोभता है और जैसे इन्द्र के स्थान सुन्दर हैं! जिस सुन्दरकमल से ब्रह्माजी उपजे हैं वैसे ही वे कमल सुन्दर हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणें मरणानंतरावस्थावर्णनन्नामै
कोनचत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥३९॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तब दोनों देवियों में उस शव के पास विदूरथ की लीला को देखा वह उसकी मृत्यु से पहले वहाँ पहुँची है और पूर्व के से वनभूषण पहिरे हुए पूर्व का सा आचार किये, पूर्व की सी सुन्दर है और पूर्व का सा ही उसका शरीर है। एवम् उसका सुन्दर मुख चन्द्रमा की नाई अकाशता है और महासुन्दर फूलों की भूमि पर बैठी है। निदान लक्ष्मी के समान लीला और विष्णु के समान राजा को देख; पर जैसे दिन के समय चन्द्रमा की प्रभा मध्यम होती है वैसे ही उन्होंने लीलाको कुछ चिन्तासहित राजा की बाई ओर एक हाथ चिबुक पर रखे और दूसरे हाथ से राजा को चमर करती देखा। पूर्व लीला ने इनको न देखा, क्योंकि ये दोनों प्रबुध आत्मा और सत्संकल्प थीं और वह लीला इनके समान प्रबुध न थी। रामजी ने पूछा, हे भगवन! उस मण्डप में पूर्व लीला जो देह को स्थापन कर और ध्यान में विदूरथ की सृष्टि देखने को सरस्वती के साथ गई थी उस देह का मापने कुछ वर्णन न किया कि उसकी क्या दशा हुई और कहाँ गई! वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! लीला