पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२५२

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योगवाशिष्ठ।

वर से जाकर प्रवेश करेगा। इससे अब और कुछ कहना पूछना नहीं; यह तो देवीजी के वर से बँधा है। हे रामजी। ऐसे कहकर यमराज ने राजा को अपने स्थान से चला दिया। तब राजा आगे चले और उसके पीछे दोनों देवियाँ चलीं। राजा को यह देवियाँ देखती थीं पर राजा इनको न देख सकता था। तब तीनों उस ब्रह्माण्ड को लाँघ, जिसका राज्य विदूरथ ने किया था, दूसरे ब्रह्माण्ड में आये और उसको भी लॉप के पद्म के राजा के देश में आकर उसके मन्दिर में,जहाँ फूलों से ढका शव था आये। जैसे मेघ से वायु मान मिलता है वैसे ही एक क्षण में देवियाँ मान मिली। रामजी ने पूछा, हे भगवन! वह राजा तो मृतक हुआ था; मृतक होकर उसने उस मार्ग को कैसे पहिचाना? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वह विदूरथ जो मृतक हुआ था उसकी वासना नष्ट न हुई थी। अपनी उस वासना से यह अपने स्थान को प्राप्त हुआ। हे रामजी! चिद् अणु जीव के उदर में भ्रान्तिमात्र जगत् है—जैसे वट के बीज में अनन्त वट वृक्ष होते हैं वैसे ही चिद्अणु में अनन्त जगत् हैं—जो अपने भीतर स्थिर है उसको क्यों न देखे? जैसे जीव अपने जीवत्व का अंकुर देखता है वैसे ही स्वाभाविक चिद्अणु त्रिलोकी को देखता है। जैसे कोई पुरुष किसी स्थान में धन दवा रक्खे और आप दूर देश में जावे तो धन को वासना से देखता है वैसे ही वासना की दृढ़ता से विदूरथ ने देखा और जैसे कोई जीव स्वमभ्रम से किसी बड़े धनवान के गृह में जा उपजता है और भ्रम के शान्त होने पर उसका प्रभाव देखता है वैसे ही उसको अनुभव हुआ। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जिसकी वासना पिण्डदान क्रिया की नहीं होती वह मृतक होने पर अपने साथ कैसे देह को देखता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! पुरुष जो मातापिता के पिण्ड करता है उनकी वासना हृदय में होती है और वही फल रूप होकर भासती है कि मेरा शिर है; मेरे पीछे मेरे बान्धवों ने पिण्डदान किया है उससे मेरा शरीर हुआ है। हे रामजी! संदेह हो अथवा विदेह अपनी वासना ही के अनुसार अनुभव होता है—भावना से भिन्न अनुभव नहीं होता। चित्तमय पुरुष है; चित्त में जो पिण्ड की