पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२३९

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उत्पत्ति प्रकरण।

के स्थान ब्रह्मा विष्णु और रुद्र के लोक आये। इन सबको जाँघ महावज्रसार की नाई ब्रह्माण्ड कपाट आया उसको भी लाँघ गई। जैसे कुम्भ में बरफ डालिये तो उसकी शीतलता बाहर प्रकट होती है वैसे ही वह ब्रह्माण्ड से बाह्य निकल गई। उस ब्रह्माण्ड से दशगुणा जल तत्त्व आया, इसी प्रकार वह अग्नि, वायु और आकाशतत्त्व आवरण को भी लाप गई। उसके धागे महाचैतन्य आकाश आया उसका अन्त कहीं नहीं वह आदि, अन्त और मध्य से रहित है। हे रामजी! जो कोटिकल्प पर्यन्त गरुड़ उड़ते जावें तो भी उसका अन्त न पावें; ऐसे परमाकाश में वह गई और वहाँ इनको कोटि ब्रह्माण्ड दृष्टि आये। जैसे वन में अनेक वृक्षों के फल होते हैं और परस्पर नहीं जानते वैसे ही वह सृष्टि पापको न जानती थी फिर एक ब्रह्माण्डरूपी फल में दोनों प्रवेश कर गई जैसे चींटियाँ फल के मुखमार्ग में प्रवेश कर जाती हैं। उसमें फिर उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और रुद सहित त्रिलोकी देखी। उनके भी लोक लाँघ गई और उनके नीचे और लोकपालों के स्थान लाँघे। फिर वे चन्द्रमा, तारा, वायु और मेघमण्डलों को लाँघ के उतरी और राजा के नगर और उस मण्डपाकाश में जहाँ पद्म राजा का शव फूलों से वैंपा पड़ा था प्रवेश कर गई। इसके अनन्तर वह कुमारी इस भाँति अन्तर्धान हो गई जैसे कोई मायावी पदार्थ हो और अन्तर्धान हो जावे। लीला पद्म के पास बैठ गई और मन में विचारने लगी कि यह मेरा भर्ता है वहाँ इसने संग्राम किया था, अब शूरमा की गति को प्राप्त हुआ है और इस परलोक में प्राय के सोया है। उसके पास में भी अपने शरीर से देवी जी के वर से आन प्राप्त हुई हूँ मेरे ऐसा अब कोई नहीं और मैं बड़े आनन्द को प्राप्त हुई हूँ। हे रामजी! ऐसे विचार के पास एक चमर पड़ा था उसको हाथ में लेके भर्ती के लिये हिलाने लगी। जैसे चन्द्रमा किरणों सहित शोभा पाता है वैसे ही उसके उठाने से वह चमर शोभा पाने लगा। देवी से लीला ने पूछा, हे देवी! यह राजा तो मृतक होता है। इसके श्वास अब थोड़े से रहे हैं जब यहाँ से मृतक होके पद्म के शरीर में जावेगा तब राजा के जागे हुए मन्त्री और नौकर कैसा जानेंगे? देवी बोली, हे