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उत्पत्ति प्रकरण।

लीला ने कहा, हे देवि! तुम तो सत्यसंकल्प, सत्यकाम और ब्रह्मस्वरूप हो मुझको उसी शरीर से तुम विदूरथ के गृह में वशिष्ठ ब्राह्मण की सृष्टि में मुझे क्यों न ले गई? देवी बोली, हे लीले! मैं किसी का कुछ नहीं करती। सब जीवों के संकल्पमात्र देह हैं और मैं इतिरूप हूँ। एकएक जीव के अन्तर चैतन्यमात्र देवता होकर मैं स्थित हूँ; जो-जो जीव जैसी जैसी भावना करता है वैसे ही वैसी उसको सिद्धता होती है। हे लीले! जब तूने मेरा आराधन किया था तब तूने यह प्रार्थना की थी कि मेरे भर्ता का जीव इसी आकाशमण्डप में रहे और मुझको ज्ञान की भी प्राप्ति हो। उसी के अनुसार मैंने तुझको ज्ञान का उपदेश दिया और तुझको ज्ञान प्राप्त हुआ। इसी निमित्त उसने पूजन किया था उससे उसके यही प्राप्त हुआ है कि देहसहित भर्ता के साथ जावेगी। जैसा जैसा चित्त संवित् में स्पन्द दृढ़ होता है वैसे ही वैसी सिद्धता होती है। हे लीले! जो तप करते हैं उनकी दृढ़ता से चिदात्माही देवतारूप होके फल को देते हैं। जैसे-जैसे सङ्कल्प की तीव्रता किसी को होती है चैतन्य संवित् से उसको वैसा ही फल प्राप्त होता है। चित्तसंवित् से भिन्न किसी से किसी को कदाचित् कुछ फल नहीं प्राप्त होता आत्मा सर्वगत और सर्व के अन्तःकरण में स्थित है। जैसे उसमें चैत्यता होती है उसको वैसा ही शुभाशुभ भाव प्राप्त होता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सत्य कामसङ्कल्पवर्णन
न्नाम त्रयस्त्रिंशत्तमस्सर्गः॥३३॥

रामजी बोले, हे भगवन! राजा विदूरथ जब देवी से कहकर संग्राम में गया तो उसने वहाँ क्या किया? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब राजा गृह से निकला तो तारों में चन्द्रमा के सदृश सम्पूर्ण सेना से सुशोभित हुआ और रथ पर आरूढ़ होकर सभासहित संग्राम में आया। वह रथ मोती और मणियों से पूर्ण था और उसमें आठ घोड़े लगे थे जो वायु से भी तीक्ष्ण चलते थे और उसमें पाँच ध्वजा थीं। उस रथ पर आरूढ़ हो राजा इस भाँति संग्राम में आया जैसे सुमेरु पर्वत पंखों से समुद्र में जा पड़े। तब जैसे प्रलयकाल में समुद्र इकट्ठे हो जाते हैं वैसे ही दोनों सेनाएँ इकट्ठी हो गई और बड़ा युद्ध होने लगा और मेघों की नाई