पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२२५

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उत्पत्ति प्रकरण।

स्वप्ना हो और जैसे स्वप्ननगर वास्तव सत नहीं होता वैसे ही यह जगत् भी जो दृष्टि आता है भ्रममात्र है। जैसे स्वप्न में असत् ही सत् होके भासता है वैसे ही यह भी अहं त्वं आदि भासते हैं और जैसे स्वप्न में सब कर्म होते हैं वैसे ही यह भी जानो। इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! स्वप्न से जब मनुष्य जागता है तब स्वप्न के पदार्थ उसे असत् रूप भासते हैं, पर ये तो ज्यों के त्यों रहते हैं और जब देखिये तब ऐसे ही हैं, फिर आप जाग्रत् और स्वप्न को कैसे समान कहते हैं। वशिष्ठजीबोले, हे रामजी! जैसा स्वप्न है वैसा ही जाग्रत है; स्वप्न और जाग्रत् में कुछ भेद नहीं स्वप्न को भी असत् तब जानता है जब जागता है; जब तक जागता नहीं तब तक असत् नहीं जानता वैसे ही मनुष्य भी जब तक आत्मपद में नहीं जागता तब तक असत् नहीं भासता और जब आत्मपद में जागता है तब यह जगत् भी असरूप भासता है। हे रामजी! यह जगत् असवरूप है और भ्रम से सत की नाई भासता है। जैसे स्वप्न की स्त्री असवरूप होती है और उसको पुरुष सतरूप जानता है वैसे ही यह जगत् भी असरूप सब हो दिखाई देता है। केवल आभासरूप जगत् है और आत्मसत्ता सर्वत्र सर्वदा अद्वैतरूप है, जहाँ जैसा चिन्तता है वहाँ वैसा ही होके भासता है। जैसे डिब्बे में अनेक रत्न होते हैं उसमें जिसको चाहता है लेता है, वैसे ही सर्वगत चिदाकाश, जहाँ जैसा चिन्तता है वहाँ वैसा हो भासता है। हे रामजी! अव पूर्व का प्रसङ्ग सुनो। जब देवी ने विदूरथ पर अमृत के समान ज्ञानवचनों की वर्षा की तब उसके हृदय में विवेकरूप सुन्दर अंकुर उत्पन्न हुआ। तब सरस्वती ने कहा, हे राजन्! जो कुछ कहना था वह मैं तुझसे कह चुकी अब तुम रणसंग्राम में मृतक होगे यह मैं जानती हूँ। अवहम जाती हैं, लीलादिक को देखाने के लिये हम भाई थीं सो सब दिखा चुकीं। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी। जब इस प्रकार मधुरवाणी से सरस्वती ने कहा तब बुद्धिमान राजा विदूरथ बोला, हे देवी! बड़ों का दर्शन निरर्थक नहीं होता वह तो महाफल देनेवाला है। हे देवि! जो अर्थी मेरे पास आता है उसे मैं