पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२२४

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योगवाशिष्ठ।

आत्मा से फुरे हैं और वास्तव में कुछ नहीं हुआ। केवल आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है और श्रम से और कुछ भासता है, पर शुद्धविज्ञान घनरूप ही उसका शेष रहता है। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार जब देवी और विदूरथ का संवाद वशिष्ठजी ने रामजी से कहा तब सूर्य अस्त होकर सायङ्काल का समय हुआ और सब सभा परस्पर नमस्कार करके स्नान को गई। जब रात्रि बीत गई सूर्य की किरणों के निकलते ही सब अपने स्थानों पर माके बैठे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे लीलोपाख्याने भ्रान्तिविचारो नामैकोन
त्रिंशत्तमस्सर्गः॥२९॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो पुरुष अबोध हैं अर्थात् परमपद में स्थित नहीं हुए उनको जगत् वज्रसार की नाई दृढ़ है। जैसे मूर्ख बालक को अपनी परछाही वैताल भासता है वैसे ही अज्ञानी को असत् रूप जगत् सत् हो भासता है और जैसे मरुस्थल में मृग को असतरूप जलाभास सत्य हो भासता है; स्वप्ने में किया अर्थभ्रम करके भामते हैं; जिसको सुवर्णबुद्धि नहीं होती उसको भूषणबुद्धि सत् भासती है और जैसे नेत्रदूषण से आकाश में मुक्नमाला भासती हैं वैसे ही असम्यकदर्शी को असवरूप जगत् सत् हो भासता है। हे रामजी! यह जगत् दीर्घकाल का स्वप्ना है; अहन्ता से दृढ़ जाग्रतरूप हो भासता है और वास्तव में कुछ उपजा नहीं। परमचिदाकाश सर्वथा शान्ति और अचिन्त्य चिन्मात्र स्वरूप सर्वशक्ति सर्व प्रात्मा ही है; जहाँ जैसा स्पन्द फुरता है वैसा ही जगत् होकर भासता है जैसे स्वप्नसृष्टि भासती है वह स्वप्नभ्रम चिदाकाश में स्थित है। उस चिदाकाश में एक स्वप्नपुर फुरता है और वहाँ दृष्टा हो दृश्य को देखता है। वह दृष्टा और दृश्य दोनों चेतन संवित में आभासरूप हैं वैसे ही यह जगव भी आभासरूप है। हे रामजी! सर्ग का आदि जो शुद्ध आत्मसत्ता थी उसमें आदि संवेदन स्पन्द हुआ है वहाँ ब्रह्माजी हैं और उसी के संकल्प में यह सम्पूर्ण जगत् स्थित है। यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्न की नाई है, उस स्वप्नरूप में तुम्हारा सद्भाव हुआ है। जैसे तुम हो वैसे ही और भी हैं। जैसे स्वप्न में स्वप्ननगर को और