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उत्पत्ति प्रकरण।

चिदाकाश में मनन और स्मरण है। जैसे तरङ्ग भी जलरूप हैं और जल ही में होते हैं; जल से इतर तरङ्ग कुछ वस्तु नहीं हैं; वैसे ही मनन और स्मरण भी चिदाकाशरूप जानो। हे रामजी! दृश्य कुछ भिन्न वस्तु नहीं है; द्रष्टा ही दृश्य की नाई होकर भासता है। जैसे मनाकाश नाना प्रकार हो भासता है वैसे हो चिदाकाश का प्रकाश नाना प्रकार जगत् होकर भासता है। यह विश्व सब चिदाकाश रूप है। हमको तो ऐसे ही भासता है पर तुमको अर्थाकाश रूप भासता है, इसी कारण कहा कि लीला और सरस्वती आकाशरूप, सर्वत्र स्वच्छरूप और निराकार थीं। वे जहाँ चाहती थीं तहाँ जाय प्राप्त होती थीं और जैसी इच्छा करती थीं वैसी सिद्धि होती थी, क्योंकि जिसको चिदाकाश का अनुभव हुआ है उसको कोई रोक नहीं सकता। सर्वरूप होके जो स्थित हुभा उसे गृह में प्रवेश करना क्या आश्चर्य है। वह तो अन्तवाहकरूप है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्यानेस्मृत्यनुभववर्णनन्नामा
ष्टाविंशतितमस्सर्गः॥२८॥

वशिष्ठजी बोले हे रामजी! जब दोनों देवियाँ जिनकी चन्द्रमा के समान कान्ति थी राजा के अन्तःपुर में संकल्प से प्रवेशकर सिंहासन पर स्थित हुई तो बड़ा प्रकाश अन्तःपुर में हुआ और शीतलता से व्याधि ताप शान्त हुआ। जैसे नन्दनवन होता है वैसे ही अन्तःपुर हो गया और जैसे प्रातःकाल में सूर्य का प्रकाश होता है वैसे ही देवियों के प्रकाश से अन्तःपुर पूर्ण हुआ; मानों देवियों के प्रकाश से राजा पर अमृत की सींचना हुई। तब राजा ने देखा कि मानों सुमेरु के शृङ्ग से दो चन्द्रमा उदय हुए हैं। ऐसे देख के वह विस्मय को प्राप्त हुआ और चिन्तना की कि ये देवियाँ हैं। इसलिये जैसे शेषनाग की शय्या से विष्णु भगवान उठते हैं वैसे ही उसने उठके और वनों को एक ओर करके हाथों में पुष्प लिये और हाथ जोड़ के देवियों के चरणों पर चढ़ाये और माथा टेक के पद्मासन बाँध पृथ्वी पर बैठ गया और कहने लगा, हे देवियो! तुम्हारी जय हो। तुम जन्म दुःख ताप के शान्त करनेवाले चन्द्रमा हो और अपूर्वसूर्य हो—अर्थात् पूर्व सूर्य के प्रकाश से बाह्यतम नष्ट