पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२१५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०९
उत्पत्ति प्रकरण।

अनुभव संवित में होता है तैसे ही सिद्धता होती है अन्यथा नहीं होती। जिसके निश्चय में ये शरीरादिक आकाशरूप हैं उनको आधिभौतिकता का अनुभव नहीं होता और जिसके निश्चय में आधिभौतिकता दृढ़ हो रही है उनको मन्तवाहकता का अनुभव नहीं होता। जिस पुरुष को पूर्वाध का अनुभव नहीं उनको उत्तरार्ध में गमन नहीं होता—जैसे वायु का चलना ऊर्ध्व नहीं होता, तिरछा स्पर्श होता है, अग्नि का चलना अधः को नहीं होता और जल का उर्व को नहीं होता। जैसे आदि चेतन संवित् में प्रवृत्ति हुई है वैसे ही अब तक स्थित है। इससे जिसको अन्तवाहक शक्ति उदय हुई है उसको आधिभौतिक नहीं रहती और जिसको आधिभौतिकता दृढ़ है उनको अन्तवाहक शक्ति उदय नहीं होती। हे रामजी! जो पुरुष छाया में बैठा हो उसको धूप का अनुभव नहीं होता और जो धूप में बैठा है उसको छाया का अनुभव नहीं होता। अनुभव उसी का होता है जिसकी चित्त में दृढ़ता होती है अन्यथा किसी को कदाचित् नहीं होता। हे रामजी! जैसा दृढ़ भाव चित्तसंवित् में होता है तो जब तक और प्रतीत नहीं होती तब तक वैसे ही सिद्धता होती है। जैसे रस्सी में भ्रम से सर्प भासता है और मनुष्य भय से कंपायमान होता है, सो कंपना भी तब तक है जब तक सर्प का अनुभव अन्यथा नहीं होता; जब रस्सी का अनुभव उदय होता है तब सर्पभ्रम नष्ट होता है वैसे ही जैसा अनुभव चित् संवित् में दृढ़ होता है उसी का अनुभव होता है। यह वार्ता बालक भी जानता है कि जैसी जैसी चित्त की भावना होती है वैसा ही रूप भासता है निश्चय और हो और अनुभव और प्रकार हो ऐसा कदाचित् नहीं होता। हे रामजी! जिनको ये आकार स्वप्न संकल्पपुर की नाई हुए हैं सो आकाशरूप हैं। जिनको ऐसा निश्चय हो उनको कोई रोक नहीं सकता। औरों का भी चित्तमात्र शरीर है पर जैसा जैसा संवेदन दृढ़ हुआ है वैसा ही वैसा आपको जानता है। हे रामजी! आदि में सब कुछ आत्मा से स्वाभाविक उपजा है सो अकारणरूप हे और पीछे प्रमाद से द्वैतकार्य कारणरूप होके स्थित हुआ है। हे रामजी! आकाश तीन है—एक चिदाकाश; दूसरा चित्ताकाश