पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२१३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०७
उत्पत्ति प्रकरण।

और धड़ युद्ध करे; किसी की भुजा काटी जायें और किसी के ऊपर रथ चले जावें और हस्ती, घोड़े, उलट-उलट पड़े और नाश हो जावें। हे रामजी! दोनों राजाओं की सहायता के निमित्त पूर्वदिशा, काशी, मद्रास, भीला, मालव, सकला, कवटा, किरात, म्लेच्छ, पारसी, काशमीर, तुरक, पञ्जाव, हिमालय पर्वत, सुमेरुपर्वत इत्यादि के अनेक देशपाल, जिनके बड़े भुजदण्ड, बड़े केश और बड़े भयानक रूप थे युद्ध के निमित्त

आये। बड़ी ग्रीवावाले, एकटँगे, एकाचल, एकाक्ष, घोड़े के मुखवाले, श्वान के मुखवाले और सुमेरु और कैलास के राजा और जितने कुछ पृथ्वी के राजा थे सो सब आये। जैसे महाप्रलय के समुद्र उछलते हैं और दिशा स्थान जल से पूर्ण होते हैं वैसे ही सेना से सब स्थान पूर्ण हुए और दोनों ओर से युद्ध करने लगे। चक्रवाले चक्रवाले से और खड्ग, कुल्हाड़े, त्रिशूल, छुरी, कटारी, वरछी, गदा, वाणादिक शखों से परस्पर युद्ध करने लगे। एक कहे कि प्रथम में जाता हूँ, दूसरा कहे कि मैं प्रथम आता हूँ। हे रामजी! उस काल में ऐसा युद्ध होने लगा कि कहने में नहीं आता। दौड़ दौड़ के योद्धा रण में जावें और मृत्यु को प्राप्त हों। जैसे अग्नि में घृत की आहुति भस्म होती है वैसे ही रण में योद्धा नाश को प्राप्त होते थे। ऐसा युद्ध हुआ कि रुधिर का समुद्र चला, उसमें हस्ती, घोड़े, रथ और मनुष्य तृणों की नाई बहते थे और सम्पूर्ण पृथ्वी रक्तमय हो गई। जैसे आँधी से फल, फूल और वृक्ष गिरते हैं वैसे ही पृथ्वी पर कट-कट शब्द करते शिर गिरते थे। हे रामजी! जो उस काल में युद्ध हुआ वह कहा नहीं जाता। सहस्रमुख शेषनाग भी उस युद्ध के कर्मों को सम्पूर्ण वर्णन न कर सकेंगे तब और कौन कहेगा। मैंने वह संक्षेप से कुछ सुनाया है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे लीलोपाख्याने द्वन्द्वयुद्धवर्णन नाम
सप्तविंशतितमस्सर्गः॥२७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार युद्ध हुआ तो सूर्य अस्त हुआ मानों उसकी किरणें भी शस्त्रों के प्रहार से अस्तता को प्राप्त हुई। तब विदूरथ ने सेनापति और मन्त्री को बुलाकर कहा कि हे मन्त्रियो!