पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२०९

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उत्पत्ति प्रकरण।

फुरते हैं; जैसे मंदराचल पर्वत के आगे हस्ती हो वैसे ही ब्रह्म के आगे जगत् है और वास्तव में सब ब्रह्मरूप है। कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण सब ब्रह्म ही हैं और ये जगत् ब्रह्मसमुद्र के तरंग हैं। उन जगत् ब्रह्माण्डों को देवियों ने देखा। जैसे ब्रह्माण्ड उन्होंने देखे हैं वे सुनिए। कई सृष्टि तो उन्होंने उत्पन्न होती देखी और कई प्रलय होती देखीं। कितनों के उपजने का आरम्भ देखा जैसे नूतन अंकुर निकलता है; कहीं जल ही जल है; कहीं अन्धकार ही है—प्रकाश नहीं; कहीं सब व्यवहार संयुक्त हैं और कहीं वेदशास्त्र के अपूर्व कर्म हैं। कहीं आदि ईश्वर ब्रह्मा हैं उनसे सब सृष्टि हुई है; कहीं आदि ईश्वर विष्णु हैं उनसे सब सृष्टि हुई और कहीं आदि ईश्वर सदाशिव हैं। इसी प्रकार कहीं और प्रजापति से उपजते हैं; कहीं नाथ को कोई नहीं मनाते सब अनीश्वरवादी हैं; कहीं तिर्यक् ही जीव रहते हैं; कहीं देवता ही रहते हैं और कहीं मनुष्य ही रहते हैं। कहीं बड़े आरम्भ करके सम्पन्न हैं और कहीं शुन्यरूप हैं। हे रामजी! इसी प्रकार उन्होंने अनेक सृष्टि चिदाकाश में उत्पन्न होती देखी जिनकी संख्या करने को कोई समर्थ नहीं; चिदात्मा में आभासरूप फुरती हैं और जैसे फुरना होती है उसके अनुसार फुरती हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे ब्रह्माण्डवर्णनन्नाम चतु
विंशतितमस्सर्गः॥२४॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार दोनों देवियाँ राजा के जगत् में आकर अपने मण्डप स्थानों को देखती भई। जैसे सोया हुआ जाग के देखता है वैसे ही जब अपने मण्डप में उन्होंने प्रवेश किया तब क्या देखा कि राजा का शव फूलों से ढाँपा हुआ पड़ा है। अर्द्धरात्रि का समय है; सब लोग गृह में सोये हुए हैं और राजा पद्म के शव के पास लीला का शरीर पड़ा है। और अन्तःपुर में धूप, चन्दन, कपूर और अगर की सुगन्ध भरी है। तब वे विचारने लगी कि वहाँ चले जहाँ राजा राज्य करता है। उसकी पुर्यष्टक में विदूरथ का अनुभव हुआ था उस सङ्कल्प के अनुसार विदूरथ की सृष्टि देखने को देवी के साथ लीला