पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१९८

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योगवाशिष्ठ।

कहीं हस्ति, पशु पक्षी और दैत्य-डाकिनी विचरते और योगनियाँ लीला करती थीं। कहीं अन्धे गूंगे रहते थे, कहीं गीध पक्षी; सिंह और घोड़े के मुखवाले गण विचरते और कहीं वरुण, कुबेर, इन्द्र, यमादिक लोकपाल बैठे थे। कहीं बड़े पर्वत सुमेरु, मंदराचल आदि स्थित कहीं अनेक योजन पर्यन्त वृक्ष ही चले जाते; कहीं अनेक योजन पर्यन्त अविनाशी प्रकाश; कहीं अनेक योजन पर्यन्त अविनाशी अन्धकार; कहीं जल से पूर्ण स्थान; कहीं सुन्दर पर्वतों पर गङ्गा के प्रवाह चले जाते और कहीं सुन्दर बगीचे, बावड़ी ताल और उनमें कमल लगे हुए थे। कहीं भूत भविष्यत् होता, कहीं कल्पवृक्षों के वन, कहीं अनन्त चिन्तामणि; कहीं शून्य स्थान; कहीं देवता और दैत्यों के बड़े युद्ध होते और नक्षत्रचक्र फिरते और कहीं प्रलय होता था। कहीं देवता विमानों में फिरते; कहीं स्वामिकार्तिक के रखे हुए मोरों के समूह विचरते; कहीं कुक्कुट आदि पक्षी विद्याधरों के वाहन विचरते और कहीं यम के वाहन महिषों के समूह विचरते थे। कहीं पाषाण संयुक्त पर्वत; कहीं भैरव के गण नृत्य करते; कहीं विद्युत् चमकती; कहीं कल्पतरु; कहीं मन्द-मन्द शीतल पवन सुगन्ध समेत चलती और कहीं पर्वत रत्न और मणि शोभते थे। निदान इसी प्रकार अनेक जगज्जाल उन देवियों ने देखे। जीवरूपी मच्छड़ त्रिलोकरूपी गूलर के फलों में देखे। इसके अनन्तर उन्होंने भूमण्डल को देख के महीतल में प्रवेश किया।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने आकाशगमन
वर्णनन्नामाष्टादशस्सर्गः॥१८॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तव देवियों ने भूतल ग्राम में आकर ब्रह्माण्ड खप्पर में प्रवेश किया। वह ब्रह्माण्ड त्रिलोकरूपी कमल है और उसकी अष्ट पंखुड़ियाँ हैं। उसमें पर्वतरूपी डोड़ा है; चेतनता सुगन्ध है और नदियाँ समुद्र अम्बुकगण हैं। जब रात्रिरूपी भँवरे उस पर आन विराजते हैं तब वे कमल सकुचाय जाते हैं वे पातालरूपी कीचड़ में लगे हैं; पत्ररूपी मनुष्य देवता हैं; दैत्य राक्षस उसके कण्टक हैं और डोड़ा उसका शेषनाग है। जब वह हिलता है तब भूचाल होता है और दिन