पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१९२

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योगवाशिष्ठ।

कुछ हुआ नहीं। जब वही संकल्प उलट कर सूक्ष्म अन्तवाहक की ओर आता है तब आधिभौतिकता मिट जाती है और अन्तवाहकता आ उदय होती है। जब इस प्रकार तुझको निरावरणरूप उदय होगा तब देखने में और जानने में कुछ यत्न न होगा। साकार से निराकार का ग्रहण नहीं कर सकता। निराकार की एकता निराकार से ही होती है। अन्यथा नहीं होती। जब तू अन्तवाहक रूप होगी तब उसकी संकल्प सृष्टि में तेरा प्रवेश होगा। हे लीले! यह जगत् संकल्परूप भ्रममात्र है, वास्तव में कुछ हुआ नहीं, एक अद्वैत आत्मसत्ता अपने आप में स्थित है और द्वैत कुछ है नहीं। लीला बोली, हे देवि! जो एक अद्वैत आत्मसत्ता है तो कलना यह दूसरी वस्तु क्या है सो कहो? देवी बोली, हे लीले जैसे स्वर्ण में भूषण कुछ वस्तु नहीं, जैसे सीपी में रूपा दूसरी वस्तु कुछ नहीं और जैसे रस्सी में सर्प दूसरी वस्तु नहीं वैसे ही कलना भी कुछ दूसरी वस्तु नहीं है एक अद्वैत आत्मसत्ता ज्यों की त्यों स्थित है; उसमें नानात्व भासता है पर वह भ्रममात्र है—वास्तव में अपना आप एक अनुभवसत्ता है। इतना सुन फिर लीला ने पूछा, हे देवि! जो एक अनुभवसत्ता और मेरा अपना आप है तो मैं इतना काल क्यों भ्रमती रही? देवी बोली, हे लीले! तू अविचाररूप भ्रम से भ्रमती रही है। विचार करने से भ्रम शान्त हो जाता है। भ्रम और विचार भी दोनों तेरे ही स्वरूप हैं और तुझसे ही उपजे हैं। जब तुझको अपना विचार होगा तब भ्रम निवृत्त हो जावेगा। जैसे दीपक के प्रकाश से अन्धकार नष्ट हो जाता है वैसे ही विचार से दैतभ्रम नष्ट हो जावेगा और जैसे रस्सी के जाने से सर्पभ्रम नष्ट हो जाता है और सीप के जाने से रूप भ्रम नष्ट हो जाता है वैसे ही आत्मा के जाने से आधिभौतिक भ्रम शान्त हो जावेगा। जब दृश्य का अत्यन्ताभाव जान के दृढ़ वैराग्य करिये और आत्मस्वरूप का दृढ़ अभ्यास हो तब आत्मा साक्षात्कार होकर भ्रम शान्त हो जाता है और इसी से कल्याण होता है। हे लीले! जब दृश्य जगत् से वैराग्य होता है तब वासना क्षय हो जाती है और शान्ति प्राप्त होती है। हे लीले! तू आत्मसत्ता का अभ्यास कर तो तेरा