पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१७८

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योगवाशिष्ठ।

और विश्राम प्राप्त होगा। इतना सुन रामजी बोले, हे भगवन्! मेरे बोध की वृत्ति के निमित्त मण्डपाख्यान जिस विधि से हुआ है सो संक्षेप से कहो। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस पृथ्वी में एक महातेजवान् राजा पद्म हुआ था। वह लक्ष्मीवान, सन्तानवान्, मर्यादा का धारनेवाला अति सतोगुणी और दोषों का नाशकर्त्ता एवं प्रजापालक, शत्रुनाशक और मित्रप्रिय था और सम्पूर्ण राजसी और सात्त्विकी गुणों से सम्पन्न मानो कुल का भूषण था। लीला नाम उसकी स्त्री बहुत सुन्दरी और पतिव्रता थी मानो लक्ष्मी ने अवतार लिया था। उसके साथ राजा कभी वागों और तालों और कभी कदम्बवृक्षों और कल्पवृक्षों में जाया करता था, कभी सुन्दर-सुन्दर स्थानों में जाके कीड़ा करता था; कभी बरफ का मन्दिर बनवाके उसमें रहता था और कभी रत्नमणि के जड़े हुए स्थानों में शय्या विछवा के विश्राम करता था। निदान इसी प्रकार दोनों दूर और निकट के ठाकुरद्वारों और तीर्थों में जाके क्रीड़ा करते और राजसी और सात्त्विकी स्थानों में विचरते थे। वे दोनों परस्पर श्लोक भी बनाते थे एक पद कहे दूसरा उसको श्लोक करके उत्तर दे और श्लोक भी ऐसे पढ़ें कि पढ़ने में तो संस्कृत परन्तु समझने में सुगम हो। इसी प्रकार दोनों का परस्पर प्रति स्नेह था। एक समय रानी ने विचार किया कि राजा मुझको अपने प्राणों की नाई प्यारे और बहुत सुन्दर हैं इसलिये कोई ऐसा यत्न, यज्ञ वा तप-दान करूं कि किसी प्रकार इसकी सदा युवावस्था रहे और अजर अमर हो इसका और मेरा कदाचित् वियोग न हो। ऐसा विचार कर उसने बाह्मणों, ऋषीश्वरों और मुनीश्वरों से पूछा कि हे विषो! नर किस प्रकार अजर-अमर होता है? जिस प्रकार होता हो हमसे कहो? विष बोले, हे देवि! जप, तप आदि से सिद्धता प्राप्त होती है परन्तु अमर नहीं होता। सब जगत् नाशरूप है इस शरीर से कोई स्थिर नहीं रहता। हे रामजी! इस प्रकार ब्राह्मणों से सुन और भर्ती के वियोग से डरकर रानी विचार करने लगी कि भर्ती से मैं प्रथम मरूँ तो मेरे बड़े भाग हों और सुखवान होऊँ और जो यह प्रथम मृतक हो तो वही उपाय करूँ जिससे राजा का जीव मेरे अन्तःपुर में ही रहे