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उत्पत्ति प्रकरण।

चिद्अणु सूक्ष्म हैं जैसे त्रसरेणु से सुमेरु पर्वत स्थूल है वैसे ही चिद्अणु से त्रसरेणु स्थूल हैं। ऐसे सूक्ष्म चिद्अणु से यह जगत् फुरता है सो वह आकाशरूप है, कुछ उपजा नहीं, फुरने से भासता है। हे रामजी! आकाश, पर्वत, समुद्र, पृथ्वी आदि जो कुछ जगत् भासता है सो कुछ उपजा नहीं तो और पदार्थ कहाँ उपजे हों? निदान सब आकाशरूप हैं वास्तव में कुछ उपजा नहीं और जो कुछ अनुभव में होता है वह भी मसत् है। जैसे स्वप्नसृष्टि अनुभव से होती है वह उपजी नहीं, असतरूप है वैसे ही यह जगत् भी असत्रूप है। शुद्ध निर्विकार सत्ता अपने आप में स्थित है। उस सत्ता को त्याग करके जो अवयव अवयवी के विकल्प उठाते हैं उनको धिक्कार है। यह सब आकाशरूप है और आधिभौतिक जगत् जो भासता है सो गन्धर्वनगर और स्वप्नसृष्टिवत् है। हे रामजी! पर्वतों सहित जो यह जगत् भासता है सो रत्तीमात्र भी नहीं। जैसे स्वम के पर्वत जाग्रत के रत्ती भर भी नहीं होते, क्योंकि कुछ हुए नहीं, वैसे ही यह जगत् आत्मरूप है और भ्रान्ति करके भासता है। जैसे सङ्कल्प का मेघ सूक्ष्म होता है, वैसे ही यह जगत् आत्मा में तुच्छ है। जैसे शशे के शृङ्ग असत् होते हैं वैसे ही यह जगत् असत् है और जैसे मृगतृष्णा की नदी असत् होती है वैसे ही यह जगत् असत् है। असम्यक् ज्ञान से ही भासती है और विचार करने से शान्त हो जाती है। जब शुद्ध चैतन्यसत्ता में चित्तसंवेदन होता है तब वही संवेदन जगतरूप होकर भासता है परन्तु जगत् हुआ कुछ नहीं। जैसे समुद्र अपनी द्रवता के स्वभाव से तरङ्गरूप होकर भासता है परन्तु तरङ्ग कुछ और वस्तु नहीं है जलरूप ही है वैसे ही ब्रह्मसत्ता जगतरूप होकर फुरती है। सो जगत् कोई भिन्न पदार्थ नहीं है ब्रह्मसत्ता ही किञ्चन द्वारा ऐसे भासती है। जैसा बीज होता है वैसा ही अंकुर निकलता है, इसलिये जैसे आत्मसत्ता है वैसे ही जगत् है दूसरी वस्तु कोई नहीं आत्मसत्ता अपने आप में ही स्थित है पर चित्तसंवेदन के स्पन्द से जगत् रूप होता है। हे रामजी! इसी पर मण्डप आख्यान तुमको सुनाता हूँ, वह श्रवण का भूषण है और उसके समझने से सब संशय मिट जावेंगे