पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१७२

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योगवाशिष्ठ।

कोई जीवों की खानि है? जिससे इस प्रकार इतने जीव उत्पन्न हो आते हैं; अथवा मेघ की बूँदों वा अग्नि से विस्फुलिङ्गों की नाई उपजते हैं सो कृपाकर कहिए? ओर एक जीव कौन है जिससे सम्पूर्ण जीव, उपजते हैं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! न एक जीव है और न अनेक हैं। तेरे ये वचन ऐसे हैं जैसे कोई कहे कि मैंने शश के शृङ्ग उड़ते देखे है। एक जीव भी तो नहीं उपजा में अनेक कैसे कहूँ? शुद्ध और अद्वैत आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है। वह अनन्त आत्मा है, उसमें भेद की कोई कल्पना नहीं है। हे रामजी! जो कुछ जगत् तुमको भासता है सो सब आकाशरूप है कोई पदार्थ उपजा नहीं। केवल संकल्प के फुरने से ही जगत् भासता है। जीवशब्द और उसका अर्थ आत्मा में कोई नहीं उपजा, यह कल्पना भ्रम से भासती है आत्म सत्ता ही जगत् की नाई भासती है, उसमें न एक जीव है और न अनेक जीव हैं। हे रामजी! आदि विराट् आत्मा प्राकाशरूप है, उससे जगत् उपजा है। मैं तुमको क्या कहूँ? जगत् विरारूप है, विराट जीवरूप है और जीव आकाशरूप है, फिर और जगत् क्या रहा और जीव क्या हुआ? सब चिदाकाशरूप है। ये जितने जीव भासते हैं वे सब ब्रह्मस्वरूप हैं, द्वैत कुछ नहीं और न इसमें कुछ भेद है। रामजी ने पूजा, हे मुनीश्वर! आप कहते हैं कि आदि जीव कोई नहीं तो इन जीवों का पालनेवाला कोन है। वह नियामक कौन है जिसकी मात्रा में ये विचरते हैं? जो कोई हुआ ही नहीं तो ये सर्वज्ञ और अल्पन क्योंकर होते हैं और एक में कैसे हैं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी। जिसको तुम आदिजीव कहते हो वह ब्रह्मरूप है। वह नित्य, शुद्ध और अनन्त शक्तिमान अपने आपमें स्थित है उसमें जगत् कल्पना कोई नहीं। हे रामजी! जो शुद्ध चिदाकाश अनन्तशक्ति में आदिचित् किञ्चन हुआ है वही शुद्ध चिदाकाश ब्रह्मसत्ता जीव की नाई भासने लगी हैं। स्पन्दद्वारा हुए की नाई भासती है। पर अपने स्वरूप से इतर कुछ हुआ नहीं। चैतन्य-संवित् आदि स्पन्द से (विराट्) ब्रह्मारूप होकर स्थित हुआ है और उसने संकल्प करके जगत् रचा है। उसी ने