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उत्पत्ति प्रकरण।

होके भासता है। जैसे जल में द्रवता; वायु में स्पन्द, जल में रस और तेज में प्रकाश है वैसे ही आत्मा में चित्तसंवेदन है। जब चित्तसंवेदन स्पन्दरूप होता है तब जगरूप होकर भासता है— जगत् कोई वस्तु नहीं है। हे रामजी! जैसे ओर तत्वों के अणु भोर ठौर भी पाये जाते हैं और आकाश के अणु और ठौर नहीं पाये जाते क्योंकि आकाश शून्यरूप है वैसे ही आत्मा से इतर इस जगत् का भाव कहीं नहीं पाते क्योंकि यह आभासरूप है ओर किसी कारण से नहीं उपजा। कदाचित् कहो कि पृथ्वी आदिक तत्त्वों से जगत् उपजा है तो ऐसे कहना भी असम्भव है। जैसे छाया से धूप नहीं उपजती वैसे ही तत्त्वों से जगत् नहीं उपजता, क्योंकि आदि आप ही नहीं उपजे तो कारण किसके हों? इससे ब्रह्मसत्ता सर्वदा अपने आप में स्थित है। हे रामजी! आत्मसत्ता जगत् का कारण नहीं, क्योंकि वह अभूत और मजहरूप है सो भौतिक और जड़ का कारण कैसे हो? जैसे धूप परवाही का कारण नहीं वैसे ही आत्मसत्ता जगत् का कारण नहीं। इससे जगत् कुछ हुआ नहीं वही सत्ता जगतरूप होकर भासती है। जैसे स्वर्ण भूषणरूप होता है और भूषण कुछ उपजा नहीं वैसे ब्रह्मसत्ता जगत्रूप होकर भासती है। जैसे अनुभव संवित् स्वप्ननगररूप हो भासता है वैसे ही यह सृष्टि किञ्चनरूप है दूसरी वस्तु नहीं। ब्रह्मसत्ता सदा अपने आप में स्थित है और जितना कुछ जगत् स्थावर जङ्गमरूप भासता है वह आकाशरूप है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे परमार्थरूपवर्णनन्नाम
दशमस्सर्गः॥१०॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आत्मसत्ता नित्य, शुद्ध, अजर, अमर और सदा अपने आपमें स्थित है। उसमें जिस प्रकार सृष्टि उदय हुई है वह सुनिये। उसके जानने से जगत् कल्पना मिट जावेगी। हे रामजी! भाव-अभाव, ग्रहण-त्याग, स्थूल-सूक्ष्म, जन्म-मरण आदि पदार्थों से जीव छेदा जाता है उससे तुम मुक्त होगे। जैसे चूहे सुमेरु पर्वत को पूर्ण नहीं कर सकते वैसे ही तुमको संसार के भाव-प्रभाव पदार्थ