पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१४९

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उत्पत्ति प्रकरण।

में दूसरा चन्द्रमा भासता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है। जैसे आकाश अपनी शून्यता से और समुद्र जल से पूर्ण है वैसे ही ब्रह्मसत्ता अपने आप में स्थित और पूर्ण है और उसमें जगत् का अत्यन्त अभाव है। इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह तुम्हारे वचन ऐसे हैं जेसे कहिये कि बन्ध्या के पुत्र ने पर्वत चूर्ण किया शशे के शृंग अति सुन्दर हैं, रेत में तेल निकलता है और पत्थर की शिला नृत्य करती वा मूर्ति का मेघ गर्जन और पत्थर की पुतलियाँ गान करती हैं। तुम कहते हो कि दृश्य कुछ उपजा ही नहीं और है ही नहीं और मुझको ये जरा, मृत्यु आदिक विकारों सहित प्रत्यक्ष भासते हैं इससे मेरे मन में तुम्हारे वचनों का सद्भाव नहीं स्थित होता। कदाचित् तुम्हारे निश्चय में इसी प्रकार है तो अपना निश्चय मुझको भी बतलाइए। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! हमारे वचन यथार्थ हैं। हमने असत् कदाचित् नहीं कहा! तुम विचार के देखो यह जगत् आडम्बर बिना कारण हुआ है। जब महाप्रलय होता है तब शुद्ध चैतन्य संवित् रह जाता है और उसमें कार्य कारण कोई कल्पना नहीं रहती, उसमें फिर यह जगत् कारण बिना फुरता है। जैसे सुषुप्ति में स्वप्नसृष्टि फिर आती है और जैसे स्वप्नसृष्टि अकारण है वैसे ही यह सृष्टि भी कारण है। हे रामजी! जिसका समवायकारण भौर निमित्तकारण न हो और प्रत्यक्ष भासे उसे जानिये कि भ्रान्तिरूप है। जैसे तुमको नित्य स्वप्न का अनुभव होता है और उसमें नाना प्रकार के पदार्थ कार्य कारण सहित भासते हैं पर कारण बिना है वैसे ही यह जगत् भी कारण बिना है। इससे आदि कारण बिना ही जगत् उपजा है। जैसे गन्धर्वनगर, संकल्पपुर और आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है वैसे ही यह जगत् भासता है—कोई पदार्थ सत् नहीं। जैसे स्वप्न में राजमहल और नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं सो किसी कारण से तो नहीं उपजे केवल आकाशरूप मन के संसरने से सब भासते हैं वैसे ही यह जगत् चित्त के संसरने से भासता है जैसे स्वप्न में और स्वप्ना भासता है और फिर उसमें और स्वप्न भासता है वैसे यह जगत् भासता है और वैसे ही जागत् जगज्जाल मन की कल्पना से