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योगवाशिष्ठ।

विकार कोई नहीं रहता। जैसे कलियुग में शिखावाला तारा उदय होता है और कलियुग के अभाव में नहीं उदय होता वैसे ही ज्ञानवान् के चित्त में विकार उत्पन्न नहीं होता। हे रामजी! संसार भ्रम आत्मा के प्रमाद से उत्पन्न होता है, पर आत्मज्ञान होने से वह यत्न के बिना ही शान्त हो जाता है। फूल और पत्र के काटने में भी कुछ यत्न होता है परन्तु आत्मा के पाने में कुछ यत्न नहीं होता क्योंकि बोधरूप को बोध ही से जानता है। हे रामजी! जो जानने मात्र ज्ञानस्वरूप है उसमें स्थित होने का क्या यत्न है। आत्मा शुद्ध और अद्वैतरूप है और जगभ्रममात्र है। जिसकी सत्यता पूर्वापर विचार सेन पाइये उसको भ्रममात्र जानिये और पूर्वापर विचार से जो स्थिर रहे उसको सत्यरूप जानिये। इस जगत् की सत्यता आदि अन्त में नहीं है। इससे स्वप्नवत् है। जैसे स्वप्न आदि अन्त में कुछ नहीं होता वैसे ही जाग्रत भी आदि अन्त में नहीं है इससे जाप्रत और स्वप्न दोनों तुल्य हैं। हे रामजी! यह वार्ता बालक भी जानता है कि जिसकी आदि अन्त में सत्यता न पाइये सो स्वप्नवत् है। जिसका आदि भी न हो और अन्त भी न रहे उसका मध्य भी असत्य जानिये। उसका दृष्टान्त यह है कि संकल्प पुरीवत्, ध्यान नगर की नाई, स्वप्नपुरी की नाई; वर और शाप से जो उपजता है उसकी नाई और ओषधि से उपज की नाई, इन पदार्थों की सत्यता न आदि में होती है और न अन्त में होती है और मध्य में जो भासता है सो भी भ्रममात्र है वैसे ही यह जगत् अकारण है और कार्यकारण भाव सम्बन्ध से भासता है तो कार्य-कारण से कार्यरूप जगत् हुआ, पर आत्मसत्ता प्रकारण है। जगत् साकार ओर आत्मा निराकार है। इस जगत् का दृष्टान्त जो आत्मा में देंगे उसका तुमको एक अंश ग्रहण करना चाहिये। जैसे स्वप्न की सृष्टि का पूर्व अपर भाव आत्मा है, क्योंकि अकारण है और मध्यभाव का दृष्टान्त नहीं मिलता क्योंकि उपमेय अकारण है तो उसका इसके समान दृष्टान्त क्योंकर हो। इससे अपने बोध के अर्थ दृष्टान्त का एक अंश ग्रहण करना। हे रामजी! जो विचारवान पुरुष हैं सो गुरु और शास्त्र के वचन सुनके सुखबोध के अर्थ दृष्टान्त का एक अंश ग्रहण