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योगवाशिष्ठ।

बोध का परम कारण है। इसमें परम पावन वाक्य की सिद्धता और युक्तार्थवाक्य हैं और नाना प्रकार के दृष्टान्त कहे हैं। जिसके बहुत जन्म के पुण्य इकट्ठे होते हैं उसको कल्पवृक्ष मिलता है और फल से झुक पड़ता है तब उसको यह शास्त्र श्रवण होता है। नीच को इसका श्रवण पास नहीं होता और न उसकी वृत्ति इसके श्रवण में आती है। जैसे धर्मात्मा राजा की इच्छा न्यायशास्त्र के सुनने में होती है और पापात्मा की नहीं होती वैसे ही पुण्यवान् की इच्छा इसके सुनने में होती है और अधर्मी को इच्छा नहीं होती। जो कोई इस मोक्षोपायक रामायण का आदि से अन्त पर्यन्त अध्ययन करेगा अथवा निष्काम सन्त के मुख से श्रद्धायुक्त सुनकर एकत्र भाव होकर विचारेगा उसका संसारभ्रम निवृत्त हो जावेगा। जैसे रस्सी के जानने से सर्प का भ्रम दूर हो जाता है वैसे ही अद्वैतात्मा तत्त्व के जानने से उसका संसारभ्रम नष्ट हो जावेगा। इस मोक्षोपायक शास्त्र के बत्तीस सहस्र श्लोक भोर षटप्रकरण हैं। पहिला वैराग्य प्रकरण वैराग्य का परम कारण है। हे रामजी! जैसे मरुस्थल में वृक्ष नहीं होता और कदाचित् बड़ी वर्षा हो तो वहाँ भी वृक्ष होता है वैसे ही अज्ञानी का हृदय मरुस्थल की नाई है उसमें वैराग्य वृक्ष नहीं होता, पर जो इस शास्त्र की बड़ी वर्षा हो तो वैराग्य वृक्ष उसमें उत्पन्न होता है। इस वैराग्य प्रकरण के एक सहस्र पाँच सौ श्लोक हैं। उसके अनन्तर मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण है, उसके परम निर्मल वचन हैं। जैसे मलीन मणि मार्जन करने से उज्ज्वल हो जाती है वैसे ही इन वचनों से मुमुक्षु का हृदय निर्मल होता है और विचार के बल से आत्मपद पाने को समर्थ होता है। इसके एक सहस्र श्लोक हैं। इसके अनन्तर उत्पत्ति प्रकरण के पाँच सहस्र श्लोक हैं। उसमें बड़ी सुन्दर कथा दृष्टान्तों सहित कही हैं जिनके विचार से जगत् की उत्पत्ति का भाव मन से चला जाता है—अर्थात् इस जगत् का अत्यन्त प्रभाव जान पड़ता है। हे रामजी! इस जगत् में जो मनुष्य, देवता, दैत्य, पर्वत, नदी आदि ओर स्वर्गलोक पृथ्वी, आप, तेज, वायु आकाश आदि स्थावर जंगम अज्ञान से भासते हैं इनकी उत्पति