पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१२२

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योगवाशिष्ठ।

तृण की नाई तुच्छ जानता है। हे रामजी! जो आनन्द अमृत के पान से और त्रिलोक के राज्य से नहीं होता वह आनन्द सन्तोषवान् को होता है। हे रामजी! इच्छारूपी रात्रि हृदयरूपी कमल को सकुचा देती है; जब सन्तोषरूपी सूर्य उदय होता है तब इच्छारूपी रात्रि का अभाव हो जाता है। जैसे क्षीरसमुद्र उज्ज्वलता से शोभायमान है वैसे ही संतोषवान् की कान्ति सुशोभित होती है। हे रामजी! त्रिलोकी के राजा की भी इच्छा निवृत्त न हुई तो वह दरिद्री है और जो निर्धन सन्तोषवान् है सो सबका ईश्वर है। सन्तोष उसी का नाम है जो अप्राप्त वस्तु की इच्छा न करे और प्राप्त भी हो तो इष्ट अनिष्ट में राग-द्वेष न करे। सन्तोषवान् सदा आनन्दपुरुष है और आत्मस्थिति से तृप्त हुआ है उसको और इच्छा कुछ नहीं। संतोष से उसका हृदय प्रफुल्लित हुआ है। जैसे सूर्य के उदय होने से सूर्यमुखी कमल प्रफुल्लित होता है वैसे ही संतोषवान प्रफुल्लित हो जाता है। जो अप्राप्त वस्तु की इच्छा नहीं करता और जो अनिच्छित प्राप्त हुई को यथाशास्त्र क्रम से ग्रहण करता है उसका नाम संतोषवान् है जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा अमृत से पूर्ण होता है। वैसे ही सन्तोषवान् का हृदय संतोष मे पूर्ण होता है। जो सन्तोष से रहित है उसके हृदयरूपी वन में सदा दुःख और चिन्तारूपी फूल फल उत्पन्न होते हैं। हे रामजी! जिसका चित्त सन्तोष से रहित है उसको नाना प्रकार की इच्छा समुद्र की नाना प्रकार की तरंगों के समान उपजती हैं। सन्तुष्टात्मा परम आनन्दित है। उसका जगत् के पदार्थों में हेयोपादेय बुद्धि नहीं होती। हे रामजी! जैसा आनन्द संतोषवान् को होता है वैसा आनन्द अष्टसिद्धि के ऐश्वर्य और अमृत पान करने से भी नहीं होता। संतोषवान् सदा शान्त रूप और निर्मल रहता है। इच्छारूपी धूल सर्वदा उड़ती रहती है सो सन्तोषरूपी वर्षा से शान्त हो जाती है, इस कारण संतोषवान् निर्मल है। हे रामजी! जैसे आम का परिपक्व फल सुन्दर होता है और सबको प्यारा लगता है वैसे ही सन्तोषवान पुरुष सबको प्यारा लगता है और स्तुति करने के योग्य है। जिस पुरुष को संतोष प्राप्त हुआ है उसको परम लाभ हुआ है। हे रामजी! जहाँ संतोष है