पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१०९

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मुमुक्षु प्रकरण।

रूपी खङ्ग से छेदा जा सकता है। जब सत्संग और सनशास्त्र से बुद्धिरूपी खङ्ग तीक्ष्ण हो तब संसाररूपी भ्रम का वृक्ष नष्ट हो जाता है। जब शुभ गुण होते हैं तब आत्मज्ञान आके विराजता है। जहाँ कमल होते हैं वहाँ भौंरे भी आके स्थित होते हैं। शुभ गुणों में आत्मज्ञान रहता है। हे रामजी! शुभगुणरूप पवन से जब इच्छारूपी मेघ निवृत्त होता है तब आत्मरूपी चन्द्रमा का साक्षात्कार होता है। जैसे चन्द्रमा के उदय होने से आकाश शोभा देता है वैसे ही आत्मा के साक्षात्कार होने से तुम्हारी बुद्धि खिलेगी।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे वाशिष्ठोपदेशो नामै-
कादशस्सर्गः॥११॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तुम मेरे वचनों के अधिकारी हो, मूर्ख मेरे वचनों के अधिकारी नहीं, क्योंकि जप, तप, वैराग्य, विचार, सन्तोष आदि जिज्ञासु के शुभ गुण जो शास्त्रों और सन्तजनों ने कहे हैं उनसे तुम सम्पन्न हो और जितने गुरु के गुण शास्त्र में वर्णन किये हैं सो सब मुझमें हैं। जैसे रत्न से समुद्र सम्पन्न है वैसे है। गुणों से मैं सम्पन्न हूँ। इससे तुम मेरे वचनों को रजो और तमो आदि गुणों को त्याग कर शुद्ध सात्त्विक्वान् होकर सुनो। हे रामजी! जैसे चन्द्रमा के उदय होने से चन्द्रकान्तमणि द्रवीभूत होती है और उसमें से अमृत निकलता है पर पत्थर की शिला में से नहीं निकलता वैसे ही जो जिज्ञासु होता है उसी को परमार्थ का वचन लगता है, अज्ञानी को नहीं लगता। जैसे निर्मल चन्द्रमुखी कमलिनी हो पर चन्द्रमा न होतो वह प्रफुल्लित नहीं होती वैसे ही जो शिष्य शुद्ध पात्र हो और उपदेश करनेवाला ज्ञानवान् न हो तो उसकी आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता। इसलिये तुम मोक्ष के पात्र हो और मैं भी परम गुरु हूँ। मेरे उपदेश से तुम्हारा अज्ञान नष्ट हो जावेगा। अब मैं मोक्ष का उपाय कहता हूँ; यदि तुम उसको भले प्रकार विचारोगे तो जैसे महाप्रलय के सूर्य से मन्दराचल पर्वत जल जाता है वैसे ही तुम्हारे मलीन मन की वृत्ति का अभाव हो जावेगा। इमसे हे रामजी! वैराग्य और अभ्यास के बल से इस को अपने में लीन कर शान्तात्मा हो। तुमने बाल्यावस्था से अभ्यास कर रक्खा है इससे मन को