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योगवाशगष्ठ।

अंगीकार किया और मेरा जो शुद्ध आत्मतत्त्व अपना आप था सो अन्य की नाई हो गया। मेरी स्वभावसत्ता मुझको विस्मरण हो गई और मेरा मन जाग आया। तब भाव अभावरूप जगत् मुझको भासने लगा और अपने को मैं वशिष्ठ और ब्रह्माजी का पुत्र जानने लगा और नाना प्रकार के पदार्थ सहित जगत् जानकर उनकी ओर चञ्चल होने लगा। फिर मैंने संसारजाल को दुःखरूप जानकर ब्रह्माजी से पूछा, हे भगवन! यह संसार कैसे उत्पन्न हुआ और कैसे लीन होता है? हे रामजी! जब मैंने इस प्रकार पिता ब्रह्माजी से प्रश्न किया तो उन्होंने भली प्रकार मुझको उपदेश किया उससे मेरा अज्ञान नष्ट हो गया। जैसे सूर्य के उदय होने से तुम निवृत्त हो जाता है और जैसे आदर्श को मार्जन करने से शुद्ध हो जाता है वैसे ही मैं भी शुद्ध हुआ। हे रामजी! उस उपदेश से मैं ब्रह्माजी से भी अधिक हो गया। उस समय मुझको परमेष्ठी ब्रह्माजी ने आज्ञा की कि हे पुत्र! जम्बूदीप भरतखण्ड में तुमको भ्रष्ट प्रजापति का अधिकार है वहाँ जाकर जीवों को उपदेश करो। जिसको संसार के सुख की इच्छा हो उसको कर्ममार्ग का उपदेश करना जिससे वे स्वर्गादिक सुख भोगें और जो संसार से विरक्त हो और आत्मपद की इच्छा रखता हो उसको ज्ञान उपदेश करना। हे रामजी! इस प्रकार मेरा उपदेश और उत्पत्ति हुई और इस प्रकार मेरा आना हुआ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे वशिष्ठोपदेशगमनन्नाम
दशमस्सर्गः॥१०॥

इतना सुनकर श्रीरामजी बोले, हे भगवान्! उस ज्ञान की उत्पत्ति से अनन्त जीवों की शुद्धि कैसे हुई सो कृपाकर कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो शुद्ध प्रात्मतत्त्व है उसका स्वभावरूप संवेदन-स्पति है; वह ब्रह्मारूप होकर स्थित हुई है। जैसे समुद्र अपनी द्रवता से तरङ्गरूप होता है वैसे ही ब्रह्माजी हुए हैं। उन्होंने सम्पूर्ण जगत् को उत्पन करके तीनों काल उत्पन्न किये। जब कुछ काल व्यतीत हुआ तो कलियुग आया उससे जीवों की बुद्धि मलीन हो गई और पाप में विचर कर शास्त्र वेद की मात्रा उल्लंघन करने लगे। जब इस प्रकार धर्म की मर्यादा