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मुमुक्षु प्रकरण।

के दुःखी रहे। फिर ब्रह्माजी ने दान तीर्थादिक पुण्य किया उत्पन्न करके उनको आज्ञा दी कि इनके सेवने से तुम सुखी रहोगे। जब वे ‌जीव उनको सेवने लगे तब बड़े पुण्यलोक में प्राप्त होकर उनके सुख भोगने लगे और फिर कुछ काल अपने कर्म के अनुसार भोग भोगकर गिरे। जब उन्होंने तृष्णा की तो बहुत दुःखी भये और दुःखकर आतुर हुए। उस समय ब्रह्माजी ने देखा कि यह जीवन और मरण के दुःख से महादीन होते हैं इससे वह उपाय कीजिये जिससे उनका दुःख निवृत्त हो। हे रामचन्द्र जी! ब्रह्माजी ने विचारा कि इनका दुःख आत्मज्ञान विना निवृत्त नहीं होगा इससे आत्मज्ञान को उत्पन्न कीजिये जिससे ये सुखी होवें। इस प्रकार विचार कर वे आत्मतत्त्व का ध्यान करने लगे। उस ध्यान के करने से शुद्ध तत्त्वज्ञान की मूर्ति होकर मैं प्रकट हुआ। मैं भी ब्रह्माजी के समान हूँ जैसे उनके हाथ में कमण्डलु है वैसे मेरे हाथ में भी है, जैसे उनके कण्ठ में रुद्राक्ष की माला है वैसे मेरे कण्ठ में भी है और जैसे उनके ऊपर मृगबाला है वैसे ही मेरे ऊपर भी है। मेरा शुद्ध ज्ञानस्वरूप है और मुझको जगत् कुछ नहीं भासता और भासता है तो स्वप्न की नाई भासता है। तब ब्रह्माजी ने विचार किया कि इसको मैंने जीवों के कल्याण के निमित्त उत्पन्न किया है, पर यह तो शुद्ध ज्ञानस्वरूप है और अज्ञानमार्ग का उपदेश तब हो जब कुछ प्रश्नोत्तर हो और तभी सत्य मिथ्या का विचार होवे। हे रामजी! तब जीवों के कल्याण के निमित्त ब्रह्माजी ने मुझको गोद में बैठाया और शीश पर हाथ फेरा। तब तो जैसे चन्द्रमा की किरण से शीतलता होती है वैसे ही मैं उससे शीतल हो गया। फिर ब्रह्माजी ने मुझको जैसे हम को हंस कहे वैसे कहा, हे पुत्र! जीवों के कल्याण के निमित्त तुम एक मुहूर्त पर्यन्त अज्ञान को अङ्गीकार करो। जो श्रेष्ठ पुरुष हैं सो मोरों के निमित्त भी भङ्गीकार करते आये हैं। जैसे चन्द्रमा बहुत निर्मल है परन्तु श्यामता को भङ्गीकार किये है वैसे ही तुम भी एक मुहूर्त अज्ञान को अङ्गीकार करो। हे रामजी! इस प्रकार मुझको कहकर ब्रह्माजी ने शाप दिया कि तू अज्ञानी होगा। तब मैंने ब्रह्माजी की आज्ञा मानी और शाप को