पिता ने देखा कि यह कर्मों से रहित हो गया है तो उससे कहा कि हे पुत्र। तुम कर्म क्यों नहीं करते? तुम कर्म के न करने से सिद्धता को कैसे प्राप्त होगे? जिस कारण तुम से रहित हुए हो वह कारण कहो? कारण बोला हे पिता! मुझको संशय उत्पन्न हुमा है इसलिये कर्म से निवृत्त हुआ हूँ। वेद में एक ठौर तो कहा है कि जब तक जीता रहे तब तक कर्म अर्थात् अग्निहोत्रादिक करता रहे और एक ठौर कहा है कि न धन से मोक्ष होता है न कर्म से मोक्ष होता है, न पुत्रादिक से मोक्ष होता है और न केवल त्याग से ही मोक्ष होता है। इन दोनों में क्या कर्तव्य है मुझको यही संशय है सो आप कृपा करके निवृत्त करो और बतलाओ कि क्या कर्तव्य है? अगस्तत्यजी बोले हे सुतीक्ष्ण! जब कारण ने पिता से ऐसा कहा तब अग्निवेष बोले कि हे पुत्र! एक कथा जो पहिले हुई है उसको सुनकर हृदय में धारण कर फिर जो तेरी इच्छा हो सो करना। एक काल में सुरुचि अप्सरा, जो सम्पूर्ण अप्सराओं में उत्तम थी, हिमालय पर्वत के सुन्दर शिखर पर जहाँ कि देवता और किन्नरगण, जिनके हृदय कामना से तृप्त थे, अप्सराओं के साथ क्रीड़ा करते थे और जहाँ गङ्गाजी के पवित्र जल का प्रवाह लहर ले रहा था, बैठी थी। उसने इन्द्र का एक दूत अन्तरक्षित से चला आता देखा और जब निकट आया तो उससे प्रकार; अहो सौभाग्य, देवदूत! तुम देवगणों में श्रेष्ठ हो; कहाँ से आये और अब कहाँ जानोगे सो कृपा करके कहो? देव दूत बोला, हे सुभद्रे अरिष्टनेमि नामक एक धर्मात्मा राजर्षि ने अपने पुत्र को राज्य देकर वैराग्य लिया और सम्पूर्ण विषयों की अभिलाषा त्याग करके गन्धमादन पर्वत में जा तप करने लगा। उसी से मेरा एक कार्य था और उस कार्य के लिये मैं उसके पास गया था। अब इन्द्र के पास जिसका मैं दूत हूँ सम्पूर्ण वृत्तान्त निवेदन करने को जाता हूँ। अप्सरा ने पूछा हे भगवन्! वह वृत्तान्त कौनसा है मुझसे कहो? मुझको तुम अतिप्रिय हो यह जानकर पूछती हूँ। महापुरुषों से जो कोई प्रश्न करता है तो वे उदेगरहित होकर उत्तर देते हैं। देवदूत बोला, हे भद्रे! वह वृत्तान्त मैं विस्तारपूर्वक तुमसे कहता हूँ मन लगाकर सुनो। जब उस
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योगवाशिष्ठ।