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याक़ूतीतख़्ती


की एक गुप्त कहानी कहनी पड़ी। मैंने व्यर्थ समझ कर अबतक जिस रहस्य को तुम पर प्रगट नहीं किया था, उसे आज बलपूर्वक तुमने मेरे पेट से निकलवा लिया। अस्तु, तुम ध्यान देकर मेरी कहानी सुनो, जिससे कदाचित तुम्हें प्रेम का कोई निगूढ तत्व मिल जाय।"

निहालसिंह कहने लगे,-" यह बात मैं तुमसे कह आया हूं कि महाराज पटियाले के साथ मैं वालंटियर होकह अफ़रीदियों के साथ लड़ने के लिये गया था। इस लड़ाई में जाने के लिये मुझे कुछ वैसा विशेष आग्रह न था, किन्तु घर पर खाली बैठे रहने की अपेक्षा लड़ाई के मैदान को मैने मनोविनोद का हेतु समझ कर यात्रा की थी। इसमें एक और भी कारण था। वह यह कि मेरे पुरुषाओं ने जिस बृटिश गवर्नमेन्ट की सेवा करके बड़ी नामबरी के साथ खिलत, जागीर और तमगे पाए थे, उस गवर्नमेन्ट की सेवा करनी भी मैंने अपना धर्म समझा। सो पशुओं का शिकार तो मैंने बहुत खेला था, अब मनुष्यों के शिकार के लिये महाराज पटियाले के साथ बृटिश गवर्नमेन्ट की सहायता के लिये मैं चला।

"उस समय जैसे उत्साह और उद्यम के साथ अटल हृदय से मैंने समरभूमि का पूजन कर के निज कार्य का सम्पादन किया था, वह अब सपना सा जान पड़ता है।"

मैंने कहा,-"निहालसिंह तुम धन्य हो और तुम्ही बीर-प्रसविली माता के उपयुक्त सन्तान हौ। गुरु गोविन्दसिंह के वीर हुंकार की रक्षा करनेवाली वीर सिक्ख जाति में तुम्हारा जन्म लेना सार्थक है। हाय, हम बंगाली की जात, सिवाय बकबक के और कुछ जानते ही नहीं; इसीसे हम "भीरु" उपाधि से विभूषित किए गए हैं।"

मेरी इन बातों का निहालसिंह ने कुछ जवाब न दिया और अपने वक्तव्य को पुनः इस प्रकार प्रारंभ किया,___

अच्छा, सुनो, दिसंबर महीने के अन्त होते होते, अंगरेज़ी सेना ने टिठ्ठीदल की भांति 'बाज़ार बेली' को जाकर छा लिया। एक तो कलेजे के टुकड़े डड़ाने वाला 'हाड़ तोड़' जाड़ा, उसपर असभ्य अफ़रीदियों का भयानक अत्याचार! वे दुष्ट जब मौका देखते, तभी आकर छापा मारते, और जबतक हमलोग तैयार होते, वेलूट खसोट करके पहाड़ में अदृश्य हो जाते थे। उन कंबख्तों के आक्रमण कान कोई समय था और न वे बगिचित राति से सामने डंट कर लड़तेही थे। बस, उनका