महाराजा साहब पटियाले ने अपनी थोडीसी फ़ौज के साथ उन दोनो हमीदा और कुसीदा को पटियाले भेज दिया और मैं उसी 'सीमान्त संग्राम में रह गया।
फिर जब उस लबड़धौधों से मैंने छुट्टी पाई, अर्थात असभ्य अफ़रीदियों से हैरान होकर जब अंबरेज़ी फौज लौटी तो मैंने सदा के लिये अंगरेज़ी नौकरी छोड़दी और पटियाले से उनदोनो बहिनो को साथ लेकर यहां जी बहलाने के लिये आया।
निहालसिंह की इतनी कहानी सुनकर मेरे मुहं में पानी भर आया और मैंने पूछा-"तो क्या वे दोनो अब तुम्हारे साथ हैं?"
निहालसिंह,-"हां, दोनों साथ हैं, पर जबतक कुसीदा को भी कोई एक आशिक न मिल जायगा, हमीदा मेरे साथ शादीन करेगी।"
मैंने कहा,-"तो क्या मैं कुसीहा के प्रेम का प्रसाद पासकता हूं?"
इतना सुन कर निहालसिंह उठ खड़े हुए और बोले,-"अच्छा, चलो, अब डेरे पर चलें; क्यों कि अंधेरा हो गया है। आज मैं कुसीदा और हमीदा से तुम्हारे विषय में बातें करूंगा और कल उन दोनो से तुम्हारी भेंट करा दूंगा; फिर यदि तुम कुसीदा के पाने का प्रयत्न कर सको तो ठीक है, नहीं तो इस विषय में इससे अधिक और मैं कुछ नहीं कर सकता।"
निदान, फिर तो हम दोनो मित्र लौट कर डेरे पर आए। फिर निहालसिंह तो दूसरे दिन मिलने की प्रतिज्ञा कर के अपने डेरे पर चले गए और मैं पलंग पर पड़ कर कुसीदा का सपना देखने लगा।
क्या स्वप्न सत्य नहीं है! अवश्य है; क्यों कि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के पौत्र अनिरुद्धजी ने वाणपुत्री उषा को स्वप्न ही में प्रथम प्रथम देखा था। सो उषा ने अनिरुद्ध को, और अनिरुद्ध ने उषाको जो स्वप्न में देखा था; वह स्वप्न ऐसा था कि जिसके पहिले जाप्रत अवस्था में उन दोनो में से एक ने भी अपने प्रणयी या प्रणपिन्नी का कुछ भी वृत्तान्त नहीं सुना था; केवल स्वप्न में ही एक दूसरे ने एक दूसरे को देखा था।
किन्तु मैंने तो अपने मित्र निहालसिंह से कुसादा का पूरा वृत्तान्त सुना था, इसिलिये ऐसी अवस्था में यदि मैंने उसे स्वप्न में भली भांति देखा तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात हुई?
साहित्यकारों ने अनुराग के उत्पन्न होने के अनेक कारणों में से चार