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परिच्छेद]
(७१)
यमज-सहोदरा


कुसीदा,-"लेकिन, बहिन! अब तुम लोग यहां पर एक लहज़ः भी न ठहरो, क्योंकि अबदुल के लौटने में जब ज्यादा देर होगी तो अजब नहीं कि उसके ढूंढने के लिये कोई फ़ौजी सिपाही इधर आजाय।"

मैंने पूछा,-" इस फ़ौज में कितने सिपाही हैं?"

कुसीदा,-"पांचसौ।"

तब हमीदा ने मुझसे कहा,-"बस, प्यारे, लाओ, हाथ मिलाओ और मुझे रुखसत करो, क्योंकि अब यहां पर ठहरना सरासर जान देना है।"

कुसीदा,-(हमीदा से) "लेकिन, बहिन! तुम लौट कर अब जाओगी कहाँ? तुम्हारे कत्ल का तो वालिद ने आम तौर से इश्तहार देदिया है। पल जो वालिद अपनी लड़की के कत्ल का इश्तहार देता है, उसका मुंह देखना कौन लड़की चाहेगी।"

हमीदा,-"आखिर, में तो मरना चाहती ही हूं।"

हमीदा,-"लाहौलबलासवत! क्या हिमाकत की बातें, बहिन! तुम करने लगी? तुम क्या कुत्ते की मौत मरना चाहती हो!"

हमीदा,-"तो क्या करूं?"

इस पर मैंने कहा,-"बस, प्यारी! तुम मेरा कहा मानो और मेरे साथ चलो।"

कुसीदा,-"बस, इससे बिहतर और कोई बात नहीं होसकती।"

हमीदा,-(आश्चर्य से) "यह तुम क्या कहती हो?"

कुसीदा,-"मैं बहुत ठीक कहती हूं! अब तुम अपने आशिक का साथ दो और नाहक अपनी नौजवानी को मिट्टी में न मिलाओ।"

मैंने कहा,-"इसी बात पर इनके साथ मेरी देर से हुज्जत होरही है, पर यह किसी तरह मेरी बात मानती ही नहीं।"

कुसीदा,-"नहीं, बहिन! अब तुम कुछ आगापीछा, न सोचो और अपने चाहनेवाले के साथ जाओ। क्योंकि यहां अब किसी तरह भी तुम्हारी जान की खैर नहीं है।"

हमीदा,-"लेकिन, प्यारी कुसीदा मैं तो ---"

कुसीदा,-"बस अब ज्याद; बकबक न करो और जल्द यहांसे भागो, वरन खैर नहीं होगी। और हमीदा! अगर तुहें अपने आशिक का साथ नहीं देना था तो नाहक तुमने इस गैरआईनी इश्क के मकतब