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परिच्छेद]
(६९)
यमज-सहोदरा


हमीदा की बातों ने मुझे घबरा दिया और मैं यही सोचने लगा कि यह पठानी युवती देवी है कि राक्षसी! निदान, देर तक मैंने उसके साथ अपना सिर खाली किया, पर वह अपने हठ से न हटी और उसने 'ना" से "हां" न किया। अन्त में वह उठी, मैं भी उठा और मेरे गले से वह लपट गई। मैंने भी उसे जोर से अपने हृदय से लगा लिया और परस्पर चौधारे आंसू बहाते हुए एक दूसरे के अधरोष्ठ का खूब चुंबन किया। न जाने वह अवस्था हम दोनों की कब तक रहती, यदि वहां पर की एक झाड़ी में से यह आवाज़ न आती कि,"हमीदा! तेरा कत्ल तो तेरा बाप खुद करेहीगा, लेकिन, तेरे आशिक का खून मैं अभी पीए लेता हूं; क्योंकि हमीदा के दो चाहनेवाले दुनियां में जी नहीं सकते।"

यह आवाज़ सुनतेही हम दोनो एक दूसरे के आलिंगन से अलग हुए और जिधर से वह आवाज़ आई थी, उस ओर अपनी अपनी दृष्टि को दौड़ाने लगे। मैंने और हमीदा ने भी देखा कि उपर्युक्त कटुक्ति का छौंकनेवाला सिवाय पाजी अबदुल के और कोई न था। किन्तु जब तक मैं सह्मलूं अबदुल अपना बरछा तान कर मुझपर झपटा; किन्तु उसके पीछे से एक नौजवान ने झपट कर उसकी गर्दन पर ऐसी तल्वार मारी कि उसका सिर भुट्टासा छटक कर दूर जा गिरा और धड़ भी जमीन में गिर कर तड़पने लगा। यदि उस समय उस अज्ञात नामा नवयुवक ने ऐसी अपूर्व सहायता न की होती तो निश्चय था कि सम्हलने के पहले ही अबदुल मुझे मार गिराता और फिर हमीदा की भी जान कदाचित ब्यर्थही जाती, किन्तु बहुत ठीक समय पर उस नवयुवक ने वहां पहुंच कर मेरी और हमीदा की भी सहायता की।

किन्तु जब धन्यवाद देने के लिये हमीदा और मैं-दोनो उसकी ओर बढ़े तो उस नवयुवक ने हमीदा का हाथ पकड़ कर कहा,"प्यारी, बहिन, हमीदा! मैं तो तुम्हारी अजीज कुसीदा हूं!"