ओर तो मुझे इश्क तुम्हारी तरफ़ खैचता है और दूसरी ओर दानिश्मन्दी मुझे अपने बतन की तरफ़ बँधकर अपनी आज़ादी की तरल ख़याल दिलाती है। ऐसी हालत में, मैं निहायत परीशान हूं कि क्या करूं! लेकिन, मैं जहां तक सोचती हूं, यही बिहतर समझती हूं कि चाहे अपने दिल का खून करूं लेकिन अपने वालिद, अपना मज़हब, अपना मुल्क और अपनी आज़ादी हर्गिज़ न छोड़े। ऐसी हालत में, प्यारे निहालसिंह! मैं निहायत मज़बूर हूं और बड़ी आजिज़ी के साथ अब तुमसे रुखसत हुआ चाहती हूं। मैं यह बात कह भी चुकी हूं और फिर भी कहती हूं कि हर हालत में हमीदा तुम्हारी ही रहेगी और अखीर दम तक इसका हाथ कोई गैर शख्स नहीं पकड़ सकेगा।"
मैंने कहा,-"लेकिन, प्यारी, हमीदा! यह कैसा इश्क होगा कि मैं उधर तुम्हारी जुदाई में तड़प तड़प कर अपना दम दूंगा और तुम इधर तनहाई में छटपटाकर अपनी जान खोवोगी। इसले तो यह कहीं अच्छा होगा कि तुम मुझपर और मेरे प्रेम पर भरोसा रक्खो और मेरा साथ न छोड़ो। यह तुम निश्चय जानो कि निहालसिंह के पास इतनी दौलत ज़रूर है कि वह जीते जी तुम्हें किसी बात का कष्ट नहीं होने देगा।"
हमीदा बोली,-"लेकिन, प्यारे! तुम्हारे पास वह दौलत कहां है जिसकी हमीदा को चाह है। यानी आज़ादी! बल इसके अलावे और मैं किसी दौलत की जाहां नहीं हूं। और जो तुमने 'कष्ट' की बात कही, सो तुम्हारे लाथ रहने में जितना आराम मुझे महलों में मिल सकता है, उससे कम चैन जंगल पहाड़ों की झोपड़ी में नहीं मिल सकता। और फिर इन बातों की ज़रूरत क्या है? देखो, सूरज और कमल की और चांद और चकोर की मुहब्बत कितनी दूर रहने पर भी बराबर निभी जाती है!"
मैंने कहा,-"किन्तु जल और मीन की तथा दीपक और पतंग की प्रीति का क्या परिणाम होता है?"
यह सुनकर हमीदा हंस पड़ी और बोली, खैर, तुम मुझे मछली और परवानः समझ कर ही सब्र करो!"
मैंने कहा,-"जब कि तुम्हारे यहां ऐसा अन्याय है तो फिर झख मार कर मुझ सभी कुछ सहना पड़ेगा: किन्तु प्यारी, हमीदा! तुम इतना जुल्म न करो और मेरे खून से अपनी प्यास न बुझाओ।"