दिया कि,-"याकूती तख्ती बीबी हमीदा ने बीच रास्तेही में हम दोनों से ज़बर्दस्ती लेलिया। गरज़ यह कि उन दोनो को बिदाकर मैं अपनी बहिन की मदद से तुम्हें उस जगह उठा लेगई, जहां पर तुम होश में आए थे। फिर मैंने बड़ी मुश्किल से गोली निकाली और जहां तक मुझसे होसका, मैंने तुम्हारी दवादारू करी। मैं इन बातों के जाहिर करने की ज़रूरत नहीं समझती थी, पर तुम्हारी ज़िद से मुझे आखिर यह हाल कहना ही पड़ा।"
यह सुन कर मैंने हमीदा को गले से लगा लिया और उसके गालों को चूम, बड़े दुःख से कहा,-हाय, हमीदा! जिस अभागे को तुमने एक बार मृत्यु के मुख से निकाल कर बचाया, आज उसी को तुम खुशी से मौत के हवाले कर रही हो!"
यह सुन कर हमीदा कांप उठी और आंखों में आंसू भर कर कहने लगी,-"प्यारे, निहालसिंह! तुम अपने दिल से ही मेरे भी दिल का हाल दर्याप्त कर लो कि इस वक्त मेरे दिल पर भी कैसी कयामत बरपा होरही है! लेकिन मैं लाचार हूं। यह तुम यकीन रक्खो कि अब सिवा तुम्हारे हमीदा किसीकी भी न होगी, और सिर्फ तुम्हारी ही याद में यह तहेग़ोर पहुंचेगी, लेकिन ऐसा यह कभी न करेगी कि अपने मुल्क, अपने मज़हब, अपनी कौम, और अपने बाप को छोड़ तुम्हारा साथ पकड़े और दुनियां की फिटकार सहे। इसीलिये अब यही बिहतर है कि तुम मुझे बिदा करो और मैं यहांसे चली जाऊं। प्यारे निहालसिंह! यह कभी मुमकिन नहीं है कि अब जीते जी तुम्हारी हमारी फिर कभी मुलाकात होगी; इसलिये अगर होसके तो तुम मुझे भूल जाने की कोशिश करना।"
मैंने कहा,-"और हेपत्थर! तुम! तुम क्या करोगी? क्या तुम भी मुझे भूल जाने के लिये कोशिश करोगी?"
हमीदा, प्यारे, यह गैर मुमकिन है, कि मैं तुम्हें जीते जी कभी भल सकूँ!"
मैंने कहा,-"तो आओ, पाषाणी बस, बिदा होते समय आपस में मिल भेंट तो लें।
यों कह कर मैंने हमीदा को कसकर गले से लगा लिया और उसने भी मुझे अपने भुजपाश में जकड़ लिया। हमदोनो प्रेमान्ध होकर एक दूसरे के अधरोष्ट के आसव का पान करने लगे और वाह्य जगत का खयाल किसीको भी न रहा।