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[नवां
याक़ूतीतख़्ती


अपनी दृढ़ता न खोई; इतने पर भी हमीदा मुझे बंदूक धारण करने के अयोग्य समझती है। उसकी इस कटूक्ति से मेरे सारे बदन में आग सी लग गई। यदि और किसीने मुझे कापुरुष कहकर मेरा ऐसा उपहास किया होता तो मैं तुरंत उसे इस ढिठाई का बदला देने से कदापि न चकता, परन्तु हमीदा के हाथों तो मैं बिना दामा ही बिक चुका था, इसलिये मैने अपने उमड़ते हुए क्रोध को मनही मन दबाकर धीरे धीरे कहा,__

"प्यारी हमीदा! मैं बंदूक उठाने के योग्य हूं, या नहीं, खेद है कि इसका प्रत्यक्ष अभिनय मैं तुम्हें दिखला न सका, इसलिये अब मैं इस विषय में क्या अभिमान करूं किन्तु कदाचित इस बात को तुम कभी अस्वीकार न करोड़ो कि मैं मौत से तनिक भी नहीं डरता। तौभी तुम 'डरपोक' कह कर मेरा ठहा उड़ा सकती हो, और यह बात सच भी है। क्योंकि यदि मैं कापुरुष न होता तो इस आधी रात के समय, ऐसे बीहड़ मार्ग ले तुम्हारी सहायता लेकर भागता क्यों। अतएव मेरा आज का यह काम, अवश्य ही कापुरुष का काम है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। तुम निश्चय जानो, हमीदा! मैं अपने प्राण का कुछ भी भय नहीं करता, क्योंकि एक बेर तो मैं एक प्रकार से मरही चुका था; न हो, अब भी मरूंगा; किन्तु इस मार्ग में यदि इस समय कोई उपद्रव उठ खड़ा हो तो मैं तुम्हारी रक्षा क्योंकर कर सकूँगा! बस मुझे केवल इसी बात का सोच है। ऐसी अवस्था में तुम मुझे हज़ार बार कापुरुष कह सकती हो! तुम भूली न होगी, हमीदा! कि 'लुंडीकोतल' के मार्ग में गोर्खाओं के हाथ से जो मैंने तुम्हारे सन्मान की रक्षा की थी, उसके बदले में तुमने भरे दर्वार में अपने पिता से कैसी फटकार सुनी थी, अब यदि फिर यहां पर भी कोई वैसाही बखेड़ा उठ खड़ा हो, और तुम्हें अपनेही राज्य की सीमा के भीतर, अपने पिता के ही भृत्य से कुछ भी अपमान सहना पड़े तो वह मुझसे कदापि न सहा जायगा; और ऐसा में कभी नहीं चाहता कि मेरे लिये तम्हें कोई अपमान सहना पड़े। इसलिये, प्यारी, हमीदा! अब मैं यही उचित समझताहूं, कि तुम यहांस अपने घर लौट जाओ; फिर तुम्हारे जाने पर यदि मुझमें कुछ भी सामर्थ्य होगी तो मैं अपनी बंदूक और तल्वार की सहायता से राह साफ कर अपनी सेना में जा मिलूँगा और यदि ऐसा न हो सका तो फिर कई अतितायियों का