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[आठवां
याक़ूतीतख़्ती


देखा और आनन्दसागर में ड्यक्रियां लेकर कहा,-"हमीदा, वह दिन अब बहुत समीप है, जबकि तुम मुझे अपने पास से दूर करोगी!"

हमीदा ने हंसकर कहा,-"अगर आपका दिल चाहे तो आप हमेशा मेरे पास रहिए।"

मैंने कहा,-"और यदि तुम्हीं मेरे साथ चलकर मेरे गले का हार बनो तो कैसा?"

हमीदा,--"यह गैरमुमकिन है! मैं अपने मुल्क को छोड़कर कहीं नहीं जा सकती, लेकिन इससे यह न समझिएगा कि हमीदा आपको भूल जायगो या हमीदा के जिस हाथ को आपने पकड़ा है, उसे हमीदा जीतेजी किसी गैर शख्स के हाथ में देगी।"

मैंने अचरज से पूछा-:तो क्या तुम शादी न करोगी?'

उसने कहा,-'मेरी शादी तो होचकी, अब क्या बार बार होगी?"

मैंने जान बूझकर भी अनजान बनकर कहा,-"तुम्हारी शादी किसके साथ हुई है?"

उसने कहा,-"जब कि इस बात की आपको ख़बर ही नहीं है तो फिर इसे सुनकर क्या कीजिएगा?"

निदान, देर तक इसी प्रकार की बातें होती रहीं और हमीदा बराबर मेरे सिर और सारे शरीर में तेल मालिश करती रही। मैंने उसे बहुत मना किया, पर वह न मानी और अपनी मनमानी करती ही गई। फिर कुसीदा खाना ले कर आई और रकाबी रखकर चली गई। उसके जानेपर हमदोनो ने साथ बैठ कर भोजन किया और बह पहलाही अवसर था कि मैं उठकर बैठा था और हमीदा के साथ मैंने खाना खाया था।

अस्तु, इसी प्रकार दो सप्ताह में जब में कुछ सबल होगया तो एक रोज़ रात के वक्त हमीदा ने कहा,-"प्यारे निहालसिंह! अगर आप चाहे तो मैं आज आपको अफरीदी सिवान के बाहर कर सकती हूं। क्या, आप अब अपने तई इस काबिल समझते हैं कि पहाड़ी रास्ते का सफर आसानी से कर सकेंगे?'